सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!
पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!
हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!
आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!
सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!
पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!
हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!
आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!
सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत खूब ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय नसवा जी।
Deleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय।
Deleteबहुत सुंदर रचना आदरणीय
ReplyDeleteशुक्रिया आभार आदरणीया
Deleteवाह !लाजवाब अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार आदरणीया अनीता जी।
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (२८-७-२०२०) को
"माटी के लाल" (चर्चा अंक 3776) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है
आभारी हूँ आदरणीया कामिनी जी।
Deleteसुन्दर रचना आदरणीय
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
Deleteआ परुषोत्तम कु सिन्हा जी , सूरज की दिवस यात्रा और सांझ, रात्रि के पश्चात हो रहे अरुणोदय से एक सकारात्मक सन्देश की अभिव्यक्ति करती सुन्दर रचना ! --ब्रजेन्द्र नाथ
ReplyDeleteआपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय ब्रजेन्द्र जी। हमसे जुड़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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