Saturday, 24 October 2020

एक टुकड़ा मन

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

घर से, निकला ही क्यूँ, बेवजह मैं?
न था आसान, इतना, कि आँखें मूंद लेता,
मन के, टुकड़ों को, कैसे रोक लेता!
समझा न पाया, मैं उनको,
आसान न था, समेट लेना, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
पिरोकर हूक, में खुद को,
मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं, 
भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
बहला न पाया, मैं मन को,
बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

18 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (25-10-2020) को    "विजयादशमी विजय का, है पावन त्यौहार"  (चर्चा अंक- 3865)     पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    विजयादशमी (दशहरा) की 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 24 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
    बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं,
    भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
    बहला न पाया, मैं मन को,
    बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!

    शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
    एक टुकड़ा मन!

    वाह उत्कृष्ट रचना
    बधाई व शुभकामनाएँ

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  4. मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
    यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
    विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
    पिरोकर हूक, में खुद को,
    मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!

    शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
    एक टुकड़ा मन!
    किसी की हूक सुनकर कविमन कैसे न विह्वल होता भला.....
    बहुत सुन्दर सृजन।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय सुधा देवरानी जी

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय सुशील जी

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शान्तनु जी

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  7. सराहनीय प्रस्तुति
    उम्दा रचना

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया विभा जी

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    1. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं सहित आभार

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  9. बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
    बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं,
    भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
    बहला न पाया, मैं मन को,
    बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!
    वाह!! एक टुकड़ा मन यदि खो जाये कहीँ तो अस्तित्व शेष कहाँ रह जाता है?
    अपने आप से उलझते मन की मार्मिक व्यथा कथा! उत्कृष्ट रचना, जिसे पढ़कर आपकी ही रचना * मुद्दतों बाद "! , जो मेरे मन के करीब है अनायास स्मरण हो आई

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    1. आपकी प्रशंसा ही हमारा संबल है। बहुत-बहुत धन्यवाद। हृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।

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