गर हो तो, रुको....
कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!
गर हो तो, रुको....
नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!
गर हो तो, रुको....
देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!
गर हो तो, रुको....
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 14 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय
Deleteदेखो, एकाकी सा वो तारा,
ReplyDeleteतन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!,,,,, बहुत सुंदर रचना,
सादर आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन !!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मनोज जी
Deleteकिसी बहुत अपने से भावपूर्ण आह्वान पुरुषोत्तम जी! शायद एक अप्राप्य की तलाश ही जीवन का सबल संबल है. हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
ReplyDeleteहृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।
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