खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
भींच लूं, कितनी भी, ये मुठ्ठियां,
समेट लूं, दोनों जहां,
फिर भी, यहां दामन, खाली ही मिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....
फिर भी, थामे हाथ सब चल रहे,
बर्फ माफिक, गल रहे,
बूंद जैसा, वो फिसल कर, बह चला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....
खुश्बू, दो घड़ी ही दे सका फूल,
कर गया, कैसी भूल,
रंग देकर, बाग को, वहीं मिट चला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....
बनता, फिर बिखरता, कारवां,
लेता, ठौर कोई नया,
होता, फिर शुरू इक सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 07 सितम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार आदरणीया दी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (07-09-2022) को "गुरुओं का सम्मान" (चर्चा अंक-4545) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक जी।।।।
Deleteखत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
ReplyDeleteबिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!
यही तो सच है, इस सफर का। बहुत सुंदर रचना।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय विश्वमोहन जी।
DeleteVery nice
ReplyDeleteMany many thanks for the Words of Kind Appreciation....
Deleteवाह , जीवन के सत्य को बहुत सुन्दर गीत में पिरोया गया है ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद शिवम जी
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