रुकता चलता, उलझन में मैं,
बहता, निर्बाध ये समय,
क्यूं, अवाक सा, मूक हर शै?
अस्त का, कहां उदय?.....
क्या घड़ी, किसी अवसान की!
पतन, किसी उत्थान की,
राह कोई, पर्वतीय ढ़लान की,
ये घड़ी नहीं विहान की....
उम्मीदें जगाती, उद्दीप्त किरण,
गर, न छाता इक ग्रहण,
रिक्त ना रहता, कोरा दामन,
छलक न आते ये नयन.....
अनुत्तरित प्रश्नों की, दीर्घ लड़ी,
निर्बाध, दौड़ती इक घड़ी,
पलछिन ये परछाईं होती बड़ी,
जुड़ती-टूटती इक कड़ी....
मध्य, नीरवता के, जगती रातें,
उलझी सी, लगती बातें,
निशाचर, क्यूं ऐसे झुंझलाते?
ठिठक-ठिठक, सुस्ताते....
निरंतर, क्षितिज को निहारता,
उस शून्य को पुकारता,
चाहता फिर उसकी चंचलता,
संग उसके इक वास्ता.....
रुकता चलता, उलझन में मैं,
बहता, निर्बाध ये समय,
इक आस लगाए, चुप हर शै,
अस्त का, कहां उदय?.....
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 30 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना आदरणीय सादर
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
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