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Sunday, 18 August 2019

लकीरें

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

बंध गई होगी, पांव में जंजीर कोई,
चुभ गए होंगे, शब्द बन कर तीर कोई,
या उठ गई होगी, दबी सी पीड़ कोई,
खुद ही, कब बनी है लकीर कोई,
या भर गया है, विष ही फिज़ाओं में कोई!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

फसे होंगे, सियासत की जाल में,
घिरे होंगे, अज्ञानता के अंधेरे ताल में,
मिटे होंगे, दुष्ट दुश्मनों की चाल में,
या लुटे होंगे, बेवशी के हाल में,
या भटक चुके होंगे, वो इन दिशाओं में!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

मन बंटे होंगे, चली होंगी आंधियाँ,
तन जले होंगे और चली होंगी लाठियां,
घर जले होंगे, या चली होंगी गोलियाँ,
उजाड़े गए होंगे, यहाँ के आशियां,
या घुल गए होंगे, जहर हवाओं में यहाँ!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा