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Sunday, 13 December 2020

देश को न बाँटिए

अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना, 
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 4 October 2020

हालात

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कभी ये मन, भर आए तो क्या!
आँखें ही हैं, छलक भी जाएं तो क्या!
चाहे, ये दिल दुखे, 
या कहीं, लुटती रहे अस्मतें,
समझ लेना, जरा विचलित वो रात थी!
अपनी ही जिद पर, हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कहाँ वो, संवेदनाओं का गाँव!
हर तरफ, गहन वेदनाओं का रिसाव!
चाहे, देश ये जले, 
लाशों पे, जिये ये रियासतें,
समझ लेना, सियासतों की ये बात थी!
विवश हो चली, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

विषाक्त हो, जब हवा तो क्या!
जहर साँस में, घुल भी जाए तो क्या!
चाहे, रक्त ये जमे!
या तीव्र चाल, वक्त की रुके,
समझ लेना, प्रगति की ये सौगात थी!
अनियंत्रित सी, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 August 2019

लकीरें

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

बंध गई होगी, पांव में जंजीर कोई,
चुभ गए होंगे, शब्द बन कर तीर कोई,
या उठ गई होगी, दबी सी पीड़ कोई,
खुद ही, कब बनी है लकीर कोई,
या भर गया है, विष ही फिज़ाओं में कोई!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

फसे होंगे, सियासत की जाल में,
घिरे होंगे, अज्ञानता के अंधेरे ताल में,
मिटे होंगे, दुष्ट दुश्मनों की चाल में,
या लुटे होंगे, बेवशी के हाल में,
या भटक चुके होंगे, वो इन दिशाओं में!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

मन बंटे होंगे, चली होंगी आंधियाँ,
तन जले होंगे और चली होंगी लाठियां,
घर जले होंगे, या चली होंगी गोलियाँ,
उजाड़े गए होंगे, यहाँ के आशियां,
या घुल गए होंगे, जहर हवाओं में यहाँ!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 26 February 2016

तकदीर

तकदीर! 
खेल क्या से क्या दिखाती है तक्दीर ये,
रहती है उम्र भर साथ साथ तक्दीर ये,
छल आप ही से कर जाती है तक्दीर ये।

बेपनाह चाहते इस तकदीर को हम और आप,
उम्र भर हाथों की लकीरों मे ये साथ साथ, 
लेकिन, करवटें बदल सो जाती है ये चुपचाप।

हवाओं की भी अजब सियासते हैं यहाँ,
तकदीर की बुझी राख को भड़का देती यहाँ,
कही चमकते तकदीर को बुझा देती ये हवा।

कुछ इस तरह तकदीर को अपनाया है मैंने,
पेशानी की लकीरों मे इसको बिठाया है मैंने,
जो तकदीर में नहीं, उसे भी बेपनाह चाहा है मैंने..!