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Sunday, 18 August 2019

लकीरें

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

बंध गई होगी, पांव में जंजीर कोई,
चुभ गए होंगे, शब्द बन कर तीर कोई,
या उठ गई होगी, दबी सी पीड़ कोई,
खुद ही, कब बनी है लकीर कोई,
या भर गया है, विष ही फिज़ाओं में कोई!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

फसे होंगे, सियासत की जाल में,
घिरे होंगे, अज्ञानता के अंधेरे ताल में,
मिटे होंगे, दुष्ट दुश्मनों की चाल में,
या लुटे होंगे, बेवशी के हाल में,
या भटक चुके होंगे, वो इन दिशाओं में!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

मन बंटे होंगे, चली होंगी आंधियाँ,
तन जले होंगे और चली होंगी लाठियां,
घर जले होंगे, या चली होंगी गोलियाँ,
उजाड़े गए होंगे, यहाँ के आशियां,
या घुल गए होंगे, जहर हवाओं में यहाँ!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 2 May 2017

श्वेताक्षर

यह क्या लिख रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

रुखड़े से मेरे मन की पहाड़ी पर,
तप्त शिलाओं के मध्य,
सूखी सी बंजर जमीन पर,
आशाओं के सपने मन में संजोए,
धीरे-धीरे पनप रहा,
कोमल सा इक श्वेत तृण............

क्या सपने बुन रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

वो श्वेत तृण, इक्षाओं से परिपूर्ण,
जैसे हो दृढसंकल्प किए,
जड़ों में प्राण का आवेग लिए,
मन में भीष्म प्रण किए,
अवगुंठन मन में लिए,
निश्छल लहराता वो श्वेत तृण..............

क्या तप कर रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

वियावान सी उजड़ी मन की पहाड़ी पर,
इक क्षण को हो जैसे बसंत,
पवन चली हो कोई मंद,
तन का ताप गाने लगा हो छंद,
चारो ओर खिले हो मन-मकरंद,
सावन लेकर आया वो श्वेत तृण...........

या हस्ताक्षर कर गया कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?