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Sunday, 18 September 2022

फरफराते पन्ने

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

जैसे, पढ़ गया वो किताब सारी,
खोल कर आलमारी,
उकेर कर हर एक पन्ने किताब के,
रख गया, वो खोलकर!

थी, सामने ही, हमारी उम्र सारी,
गुजरी थी या गुजारी,
जो टंकित थे, कहीं, वो शब्द सारे,
फिर, हो चले थे मुखर!
 
शब्दों की सुनूं, या खुद को चुनूं,
अब ये ही संशय बुनूं,
वो ही, गूंजित शब्दों के, प्रतिश्राव,
घाव कितने गया देकर!

अपना सा बन चला जो मिला,
वही फिर सिलसिला,
बिछड़ते, दो-मुहानों पर, वे रिश्ते,
गए नैनों को भिगोकर!

सूनी थी पड़ी, वो पगडंडियां,
कितनी सूनी वादियां,
यूं, मुश्किल बड़ा ही था गुजरना,
फिर, उसी राह होकर!

आज, कितना अपूर्ण था मैं,
यूं खुद में पूर्ण था मैं,
बोलते, फर-फराते, वो सारे पन्ने,
यूं गया कुछ उकेर कर!

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 April 2020

प्यासा

इतना, छलका-छलका सा!
हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!

ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?

अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!

लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!

ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!

तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ, 
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!

इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 20 July 2017

समर्पण

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

अन्त: रमती थी उसमें निष्ठा की पराकाष्ठा,
कभी स्वयं ईश के सर चढ कर इठलाता,
या कभी गूँथकर धागों में पुष्पगु्च्छ बन इतराता,
भीनी सी खुश्बु देकर मन मंत्रमुग्ध कर जाता,
मुरझाते ही लेकिन, पाँवों तले बस यूँ ही कुचला जाता!

जिस माली के हाथों समर्पित था जीवन,
प्रथम अनुभव छल का, उस माली ने ही दे डाला,
अब छल करने की बारी थी अपने किस्मत की,
रूठी किस्मत ने भी कहर जमकर बरपाया,
रंगत खोई, खुश्बु अश्कों में डूबी, विवश खुद को पाया!


निरीह पुष्प की निष्ठा, शायद थी इक मजबूरी,
पूर्ण समर्पित होकर ही अनुभव सुख का वो पाता,
ज्यूँ प्रीत में पतंगा, खुद आग में जलने को जाता,
असंदिग्ध, श्रेष्ठ रही उस पुष्प की सर्वनिष्ठा!
जीवन मरण उत्सव देवपूजन, शीष पुष्प ही चढ पाता।

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

Thursday, 8 September 2016

विराम

यह पूर्णविराम डाला है किसने अधूरे से लेख पर?
रह गई न! अब सब बातें अनकही!
किताबों के पन्नों पर, अपूर्ण लेख में सिमटकर।

पर क्या करूँ मैं, अब उस आवेग का?
उठ रहें हैं झौकों जैसे, जो विचारों में रह रहकर,
अब तो तय है कि ये बनेंगे विस्फोटक,
जब जल उठेंगी ये बारूद सी, चिंगारी में जलकर।

आवेग के ये झौंके, हैं ये सुनामी जैसे,
रुक सकता यह लेख नहीं, इस पूर्णविराम पर,
शक्ल ये ले लेंगी, मेरी कविताओं की,
हर कदम बढ़ती रहेगी, यह अल्पविराम ले-लेकर।

वो अनकही, अब बनेंगी मेरी क्षणिकाएँ,
अपूर्ण लेख मेरे, बोल पड़ेंगी पूर्णविराम तोड़कर,
इस अशांत मन को तब, कहीं मिलेगा सुकून,
दुखों के पलों मे ये बढ़ेगी, सुख के चंद सुकून लेकर।