युग किये, समर्पण,
पर अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
हैरान सा मैं,
क्यूं आज अंजान सा मैं?
बेगानों सा, ताकता वो मुझको,
झांकता वो, अंजानों सा,
भुलाकर, युगों का मेरा समर्पण,
बिसरा, वो मुझको!
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
यूं हंसकर सदा, सदियों मिला,
बाग सा, हंसकर खिला,
यूं भुलाकर, सदियों का अर्पण,
दे रहा, कैसा सिला!
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
हूं अब भी, इक शख्स मैं वही,
जरा शक्ल, बदली सही,
भरकर आगोश में, ये दर्पण,
सदियां बिताई यहीं!
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
चेहरे पे पड़ी, वक्त की धमक,
हरी झुर्रियों की चमक,
हर ले गईं, मुझसे ये यौवन,
समझा न, नासमझ!
युग किये, समर्पण,
अब ना लगे, उस पहले सा ये दर्पण!
हैरान हूं मैं,
क्यूं आज अंजान हूं मैं?
(सर्वाधिकार सुरक्षित)