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Sunday, 18 September 2022

फरफराते पन्ने

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

जैसे, पढ़ गया वो किताब सारी,
खोल कर आलमारी,
उकेर कर हर एक पन्ने किताब के,
रख गया, वो खोलकर!

थी, सामने ही, हमारी उम्र सारी,
गुजरी थी या गुजारी,
जो टंकित थे, कहीं, वो शब्द सारे,
फिर, हो चले थे मुखर!
 
शब्दों की सुनूं, या खुद को चुनूं,
अब ये ही संशय बुनूं,
वो ही, गूंजित शब्दों के, प्रतिश्राव,
घाव कितने गया देकर!

अपना सा बन चला जो मिला,
वही फिर सिलसिला,
बिछड़ते, दो-मुहानों पर, वे रिश्ते,
गए नैनों को भिगोकर!

सूनी थी पड़ी, वो पगडंडियां,
कितनी सूनी वादियां,
यूं, मुश्किल बड़ा ही था गुजरना,
फिर, उसी राह होकर!

आज, कितना अपूर्ण था मैं,
यूं खुद में पूर्ण था मैं,
बोलते, फर-फराते, वो सारे पन्ने,
यूं गया कुछ उकेर कर!

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 27 August 2016

दर्पण

वो मेरा दर्पण था मुझको प्यारा,
दिखलाता था मुझको मुझ सा, पूर्ण, परिपक्व, शौम्य,
पल-पल निहारता था खुद को मैं उसमें,
जब मुस्काता था दर्पण भी मुझको देखकर,
थोड़ा कर लेता था खुद पर अभिमान मैं।

प्रतिबिम्ब उसकी थी मुझको प्यारी,
संपूर्ण व्यक्तितव उभर आता था उस दर्पण में,
आत्मावलोचन करवाता था वो मुझको,
दुर्गुण सारे गिन-गिन कर दिखलाता था मुझको,
थोड़ा सा कर लेता था सुधार खुद में मैं।

अब टूटा है वो दर्पण हाथों से,
टुकड़े हजार दर्पण के बिखरे हैं बस काँटों से,
छवि देखता हूँ अब भी मैं उस दर्पण में,
व्यक्तित्व के टुकड़े दिखते हैं हजार टुकड़ों में,
पूर्णता अपनी ढ़ूंढ़ता हूँ बिखरे टुकड़ों में।

जुड़ पाया है कब टूटा सा दर्पण,
बिलखता है अब उस टूटे दर्पण का कण-कण,
आहत है उसे देखकर मेरा भी मन,
शौम्य रूप, शालीनता क्या अब मैं फिर देख पाऊँगा?
अपूर्ण बिम्ब अब देखता हूँ दर्पण की कण में।