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Sunday, 18 September 2022

फरफराते पन्ने

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

जैसे, पढ़ गया वो किताब सारी,
खोल कर आलमारी,
उकेर कर हर एक पन्ने किताब के,
रख गया, वो खोलकर!

थी, सामने ही, हमारी उम्र सारी,
गुजरी थी या गुजारी,
जो टंकित थे, कहीं, वो शब्द सारे,
फिर, हो चले थे मुखर!
 
शब्दों की सुनूं, या खुद को चुनूं,
अब ये ही संशय बुनूं,
वो ही, गूंजित शब्दों के, प्रतिश्राव,
घाव कितने गया देकर!

अपना सा बन चला जो मिला,
वही फिर सिलसिला,
बिछड़ते, दो-मुहानों पर, वे रिश्ते,
गए नैनों को भिगोकर!

सूनी थी पड़ी, वो पगडंडियां,
कितनी सूनी वादियां,
यूं, मुश्किल बड़ा ही था गुजरना,
फिर, उसी राह होकर!

आज, कितना अपूर्ण था मैं,
यूं खुद में पूर्ण था मैं,
बोलते, फर-फराते, वो सारे पन्ने,
यूं गया कुछ उकेर कर!

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 31 March 2022

ढ़ाई युग - एक यात्रा

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
कुछ पन्थ बने, वो पन्ने अब ग्रन्थ बने,
लिखते-लिखते, कल तक!

देखता हूँ, अब, उसी पन्थ पर, 
पीछे, मुड़-मुड़ कर,
आ घेरती है मुझे, 
अपनी ही, व्यक्तित्व की गहरी परछाईं,
जो संग चला, संग-संग ढ़ला,
ढ़ाई युग तक!

परिप्रेक्ष्य ही, बदल चुके अब,
परछाईं सा, वो रब,
कहाँ विद्यमान में!
खाली कुछ पल, हो चले प्रभावशाली,
गहराते रहे, यूँ सांझ के साए,
अंधियारों तक!

छूटा, शेष कहीं, उन ग्रन्थों में,
फर-फराते, पन्नों पर,
जीवंतता खोकर,
व्यक्तित्व का, शायद, दूसरा ही पहलू,
उभरे ना, इक दूसरी परछाईं,
दूजे पन्नों तक!

मगर, इक शेष, खड़ा सामने,
लक्ष्य, हैं कई साधने,
वो युग के संबल,
संग खड़े, अनुभव के अक्षुण्ण पल,
और, कहीं साधक सी जिद,
पले प्राणों तक!

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
यूँ युग और ढ़हें, नवपन्थ, नवग्रन्थ बनें,
लिखते-लिखते, कल तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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30.03.1992 से 30.03.2022
कुछ यादगार तस्वीरें और पड़ाव ....
Year 1992
Year 2022
Year 1992
Year 2022


Saturday, 8 May 2021

पाठक व्यथा-कथा

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ लिखते हो, तो दर्द बिखर सा जाता है,
ये टीस, जहर सा, असर कर जाता है,
ठहर सा जाता है, ये वक्त वहीं!
यूँ ना बांधो, ना जकड़ो, उस पल में मुझको,
इन लम्हों में, जीने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

करुण कथा, व्यथा की, यूँ, गढ़ जाते हो,
कोई दर्द, किसी के सर मढ़ जाते हो,
यूँ खत्म हुई कब, करुण कथा!
राहत के, कुछ पल, दे दो, आहत मन को,
जीवंत जरा, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ, करूँ क्या, लेकर तुम्हारी ये संवेदना!
क्यूँ जगाऊँ, सोई सी अपनी चेतना!
कहाँ सह पाऊँगा, मैं ये वेदना!
अपनी ही संवेदनाओं में, बहने दो मुझको,
आहत यूँ ना, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 6 September 2020

"वो कौन" रहे तुम

मौन रहे तुम, हमेशा ही, "वो कौन" रहे तुम!
देखा ना तुमको, जाना ना तुमको!
संभव था, पा लेता, इक अधूरा सा अनुभव!
गर एहसासों में, भर पाता तुमको!

पर, शायद, शंकाओं के बंद घेरों में थे तुम!
या अपने होकर भी, गैरों में थे हम!
कदाचित, सर्वदा सारे अधिकारों से वंचित!
जाने क्यूँ,  रहा फिर भी चिंतित!

कोशिश है, बस यूँ , गढ़ लूँ इक छवि तेरी!
चुन लूँ उधेर-बुन, बुन लूँ यूँ तुमको!
कर लूँ बातें, समझाऊँ क्यूँ होती है बरसातें?
किंचित सूनी सी हैं, क्यूँ मेरी रातें!

छवि में, मौन रहे तुम, "वो कौन" रहे तुम!
कह भी पाती, क्या वो छवि मुझको?
शंकाकुल मन तेरा, दीपक तले जगा अंधेरा,
बुझ-बुझ जलता, विह्वल मन मेरा!

उभरेंगे अक्षर, कभी तो उन दस्तावेजों पर!
पलट कर पन्ने, तुम पढ़ना उनको,
बीते हर किस्से का, उपांतसाक्षी होऊँगा मैं,
जागूंगा तुममें,  फिर ना सोऊंगा मैं!

यूँ भी उपांतसाक्षी हूँ मैं, हर शंकाओं का!
जाने अंजाने, उन दुविधाओं का,
उकेरे हैं जहाँ, एकाकी पलों के अभिलेख,
बिखेरे हैं जहाँ, अनगढ़े से आलेख!

पर मौन रहे तुम, सर्वदा "वो कौन" रहे तुम!
भावहीन रहे तुम, विलीन रहे तुम!
संभव था, ले पाता, वो अधूरा सा अनुभव!
गर सुन पाता, तेरे धड़कन की रव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................................
उपांतसाक्षी - वह साक्षी या गवाह जिसने किसी दस्तावेज़ के उपांत या हाशिये पर हस्ताक्षर किया हो या अँगूठे का निशान लगाया हो।

Sunday, 18 November 2018

सुरभि

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

मुखरित, हुए फिर वो वादे,
वो चटक रंग, वो चेहरे, वो रूप सीधे-सादे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन खुले पन्नों से.....

महक उठे हैं, फिर वो छंद,
बनते-बिगड़ते, नए-पुराने से कई अनुबंध,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन भूले लम्हों से....

मन की लिप्सा, जागी फिर,
अँकुर आए, फिर आँखों में चाह अनगिन,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन गुजरे राहों से....

तंद्रा टूटी, इक बूँद से जैसे,
सूखी नदिया की, प्यास जगी है कुछ ऐसे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन नन्हीं बूंदों से....

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

Tuesday, 13 November 2018

बिखरे शब्द

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

विचलित, कर सके ना इन्हें,
स्याह रंग के ये पहरे,
रंगों में डूबकर, ये आए हैं पन्नों पे उभर,
मोतियों से ये, अब हैं उभरे...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

बड़े बेनूर थे, ये शब्द पहले,
भाव में गए पिरोए,
काव्य में ढलकर, आए हैं पन्नों पे उभर,
निखर गए, अब इनके चेहरे....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

आयाम, कितने इसने भरे,
रूप कई इसने रचे,
भंगिमाएंँ लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
करती हुई, ये नृत्य कलाएँ...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

धूमिल भी क्या करेंगी इन्हें,
वक्त की ये ठोकरें,
विविधता लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
सदाबहार बन, ये जो ठहरे.....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

Sunday, 4 November 2018

पन्ने अतीत के

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

सदियों ये चुप थे पड़े,
काल-कवलित व धूल-धुसरित,
वक्त की परत मे दबे,
मुक्त हुए, आज ये मुखर हुए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

फड़-फड़ाते से ये पन्ने,
खंड-खंड, अतीत के हैं ये पहने,
अब लगे हैं ये उतरने,
यूँ चेहरे अतीत के, मुखर हुए।

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

पल, था जो वहीँ रुका!
पल, न था जिसको मैं जी सका!
शिकवे और शिकायतें,
रुके वो पल, मुझसे कर गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

कुछ गैर अपनों से भले,
कभी, अपनों से ही गए थे छले,
पहचाने से वो चेहरे,
नजरों के सामने, गुजर गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

गर्दिशों में वक्त की कहीं,
मुझ से, खोया था आईना मेरा,
शक्ल पुरानी सी मेरी,
अतीत की, गर्भ में दिख गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

सामने था भविष्य मेरा,
अतीत की, उसी नींव पे ठहरा,
कुछ ईंटें उस नींव की,
वर्तमान में रखो, ये कह गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

Friday, 16 March 2018

पन्नों के परे

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

कुछ शब्दों में अंकित पन्नों में गरे,
भावनाओं से उभर कर स्याही में लिपटे,
कल्पनाओं के रंगों से सँवरे,
बेजान, मगर हरदम जीवंत और ज्वलंत,
जज्बातों के कुलांचे भरते,
अनुभव के फरेब या हकीकत?
पन्नों पे गरे, शब्दों के ये खेत हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

इक इक शब्द, नेह-स्नेह से भरे,
सपनों के सतरंगी आसमान पर उड़ते,
नभ पर बिंदास पंख फैलाए,
मानो रच रहे कल्पना का नया आकाश,
अविश्वसनीय संरचना रचते,
या चक्रव्युह कोई खुद में भ्रमित!
पन्नों के परे! ये शब्दों के जंगल हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

किरदार कई इन पन्नों पर गढ़े,
एकसाथ विपरीत विचारधाराओं की पृष्ठें,
शक्ल इक किताब की लिए,
विचारधाराओं की संगम का आभास,
कोई नवधारा बनकर बहते,
या आपस मे लड़ते होते मूर्छित?
पन्नों के परे! ये व्यथा विन्यास हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

Monday, 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Monday, 8 February 2016

पन्ने खाली हैं आज

पन्ने खाली  हैं क्युँ आज  जिन्दगी के,
बनती क्युँ नही कोई कहानी अब यहाँ,
हादशों का सफर लगती है ये जिन्दगी,
विरानियों के साए में ये पन्ने अब यहाँ।

पन्ना पन्ना कभी सजता था फूलों सा,
कहता था हर पन्ना राज जिन्दगी का,
इन पन्नों को अब मिलते नहीं शब्द क्युँ,
खो गई है मायने इन पन्नों के आज कहाँ।

खाली पन्ने भी बयाँ करती कोई दासताँ,
दर्द कह जाती है मौन पन्नों की जुबाँ,
पन्ने जिन्दगी के फिर से हसेंगी शायद,
विरानियाँ पन्नों की ढुंढेगी फिर नईं जुबाँ।

Sunday, 7 February 2016

पन्ने जिन्दगी के

पन्ने पलटता गया मैं फिर से जिन्दगी के,
बिखरी पड़ी यादों को फिर चाहा समेटना,
कुछ पन्ने साफ सुथरे से, पर बिखरे मिले,
कुछ याद धुले हुए से वहीं पड़े मिले,
चंद फलसफे जिन्दगी के फिर से दोहराए गए,
जख्म जो भर चुके थे कभी, अब फिर से हरे हुए।

पन्ने जिन्दगी के मैं फिर भी पलटता गया,
हरे हुए जख्म की वजह मैं ढ़ूंढ़ता रहा,
नादानियों पें अपनों की हँसी सी आती रही,
बदजुबानियाँ कभी मन की शाख झुलाती रही,
अपनों जैसे दिख रहे दुश्मनों से भी बुरे लगे,
साफ मन को किया अब न किसी से कोई गिला।

पन्ने चंद और मैं यूँ ही पलटता गया,
कभी नाज खुद के किए पर हुआ,
तो कभी शर्मशार खुद ही जिन्दगी हुआ,
आईना जिन्दगी की पन्ने दिखलाती रही,
सच झूठ की असलियत मुझको बताती रही,
जख्म भर चुके थे सब, अब शांत मेरा चित्त हुआ।

अक्सर, पन्ने जिन्दगी के मैं पलटता युँ ही रहा!