मेरे हृदय के ताल को,
सदा ही भरती रही भावों की नमीं,
भावस्निग्ध करती रही,
संवेदनाओं की भीगी जमीं.....
तप्त हवाएं भी चली,
सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,
वेदनाओं से भी बिधी,
मेरे हृदय की नम सी जमीं.....
उठते रहे लहर कई,
कितने ही भँवर घाव देकर गई,
संघात ये सहती रही,
कंपकंपाती हृदय की जमी....
अब नीर नैनों मे लिए,
कलपते प्राणों की आहुति दिए,
प्रतिघात करने चली,
वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....
क्यूँ ये संताप में जले,
अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,
रक्त के इस भार से,
उद्वेलित है हृदय की जमीं....
सदा ही भरती रही भावों की नमीं,
भावस्निग्ध करती रही,
संवेदनाओं की भीगी जमीं.....
तप्त हवाएं भी चली,
सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,
वेदनाओं से भी बिधी,
मेरे हृदय की नम सी जमीं.....
उठते रहे लहर कई,
कितने ही भँवर घाव देकर गई,
संघात ये सहती रही,
कंपकंपाती हृदय की जमी....
अब नीर नैनों मे लिए,
कलपते प्राणों की आहुति दिए,
प्रतिघात करने चली,
वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....
क्यूँ ये संताप में जले,
अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,
रक्त के इस भार से,
उद्वेलित है हृदय की जमीं....