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Friday, 10 December 2021

रिक्त क्षणों का क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

कंपन, गुंजन, खनखन, बस कहने को हैं,
कलकल, छलछल, ये पल,
बहती ये नदियां, बस बहने को हैं,
सिक्त हुईं, फिर छलक पड़ी, दो आँखें,
उन धारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

तट पे आकर, टकरातीं सागर की लहरें,
शायद, आती हैं ये कहने,
विचलन, सागर की, बढ़ने को हैं,
सिमट चुकी, कितनी ही नदियां उनमें,
उस पानी के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

रिम-झिम-रिम-झिम, बारिश होने को है,
भीगेंगे, सूखे ये सारे कण,
ये उद्विगनता, अब बढ़ने को है,
फिर लौट पड़ेंगे, लहराते बादल सारे, 
उन बौछारों के पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

यूं अग्नि का जलना, मौसम का छलना,
यूं रुत संग रंग बदलना,
ये फितरत, जारी सदियों से है,
रात ढ़ले, जब ढ़ल जाते ये सारे तारे,
उन तारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 18 October 2018

उद्वेलित हृदय

मेरे हृदय के ताल को,

सदा ही भरती रही भावों की नमीं,

भावस्निग्ध करती रही,

संवेदनाओं की भीगी जमीं.....



तप्त हवाएं भी चली,

सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,

वेदनाओं से भी बिधी,

मेरे हृदय की नम सी जमीं.....



उठते रहे लहर कई,

कितने ही भँवर घाव देकर गई,

संघात ये सहती रही,

कंपकंपाती हृदय की जमी....



अब नीर नैनों मे लिए,

कलपते प्राणों की आहुति दिए,

प्रतिघात करने चली,

वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....



क्यूँ ये संताप में जले,

अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,

रक्त के इस भार से,

उद्वेलित है हृदय की जमीं....

Wednesday, 16 August 2017

भावस्निग्ध

कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?

मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!
सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,
फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,
कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!

पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?

रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये कहीं न कहीं?
भिगोते हैं जब इसे, भावों की भीगी नमी,
इस हृदय के ताल में, भँवर लिए आते हैं ये कई,
गीत स्नेह के अब गाएगी,  रिक्त सी मन की ये जमीं!

भावों से यूँ स्निग्ध होकर, कलप रहा है क्युँ ये मन?