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Friday, 8 April 2016

रूप लावण्य

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

उभरा है रूप वही फिर इक बार सामने,
तड़प कई जगा गई है वो रूप इन धड़कनों में,
आईने की तरह रूबरू वो रूप इस मन में,
दबी चाहतों के स्वर निखरे हैं फिर से चमन में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

सम्मोहन है कैसी न जाने उस रूप में,
असंख्य तार जुड़े है तड़प के उस स्वरूप में,
हो न हो उस तरफ मैं ही हुँ उनके मन में,
लावण्य रूप का वो बस चुकी है मेरे हृदय में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

आईना रूप का वो न टूटे कभी इस मन में,
लावण्य चाहतों का कभी कम न हो उस रूप में,
कतारें बहारों की ढ़लती रहे उनके ही संग में,
बीते ये जीवन उस रूप के आँचलों के साये तले में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?