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Thursday, 22 June 2017

त्यजित

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,
निश्छल स्नेह लिए मन में,
दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,
हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...
ज्युँ छाँव की चाह में, भटकता हो चातक सघन वन में।

छलता रहा हूँ मैं सदा,
प्रणय के इस चंचल मधुमास में,
जलता रहा मैं सदा,
जेठ की धूप के उच्छवास में,
भ्रमित होकर विश्वास में, भटकता रहा मैं सघन घन में।

स्मृतियों से तेरी हो त्यजित,
अपनी अमिट स्मृतियों से हो व्यथित,
तुम्हे भूलने का अधिकार दे,
प्रज्वलित हर पल मैं इस अगन में,
त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

भ्रमित रक्तिम लावण्यता में,
श्वेत संदली ज्योत्सना में,
शिशिर के ओस की कल्पना में,
लहर सी उठती संवेदना में,
मधुरमित आस में, समर्पित कण कण मैं तेरे सपन में।

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

Friday, 8 April 2016

रूप लावण्य

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

उभरा है रूप वही फिर इक बार सामने,
तड़प कई जगा गई है वो रूप इन धड़कनों में,
आईने की तरह रूबरू वो रूप इस मन में,
दबी चाहतों के स्वर निखरे हैं फिर से चमन में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

सम्मोहन है कैसी न जाने उस रूप में,
असंख्य तार जुड़े है तड़प के उस स्वरूप में,
हो न हो उस तरफ मैं ही हुँ उनके मन में,
लावण्य रूप का वो बस चुकी है मेरे हृदय में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

आईना रूप का वो न टूटे कभी इस मन में,
लावण्य चाहतों का कभी कम न हो उस रूप में,
कतारें बहारों की ढ़लती रहे उनके ही संग में,
बीते ये जीवन उस रूप के आँचलों के साये तले में।

कैसी ये कशिश, कैसा ये तड़प न जाने उस रूप में?

Tuesday, 9 February 2016

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।