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Sunday, 13 March 2022

हार जाता हूँ

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं, 
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 27 October 2018

चाँद तक चलो

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

नभ को लो निहार तुम,
पहन लो, इन बाँहों के हार तुम,
फलक तक साथ चलो,
एक झलक, चाँद की तुम भर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

प्राणों का अवगुंठण लो,
इस धड़कन का अनुगुंजन लो,
भाल जरा इक अंकन लो,
स्नेह भरा, मेरा ये नेह निमंत्रण लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

यूं हुआ जब मैं निष्प्राण,
बिंधकर उस यम की सुईयों से,
भटके दर-दर तुम कहते,
पिय वापस दे दो, यम सूई ले लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

ये झौंके हैं शीत ऋतु के,
ये शीतल मंद बयार मदमाए से,
ये अंग प्रत्यंग सिहराए से,
ये उन्माद, महसूस जरा कर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

सिहरन ले आया समीर,
तुम संग चलने को प्राण अधीर,
पग में ना अब कोई जंजीर,
हाथ धरो, प्रिय नभ के पार चलो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

Saturday, 2 June 2018

ललक

चुरा लाया हूं बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

कलकल से बहते किसी पल में,
नर्म घास की चादर पर, कहीं यूं ही पड़े हुए,
एकटक बादलों को निहारता मैं,
वो घुमड़ते से बादल, जैसे फैला हों आँचल,
बूंद-बूंद बादलों से बरसती हुई फुहारें,
वो बेपरवाह पंछियों की कतारें,
यूं हौले से फिर, मन मे भीगने की ललक,
बूंद-बूंद यूं संग भीगता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से वो ही झलक!
इक ललक, जो बाकी है अब तलक.....

ठंढ से ठिठुरते हुए किसी पल में,
चादरों में खुद को लपेटे, सिमटकर पड़े हुए,
चाय की प्याली हाथों में लिए मैं,
गर्म चुस्कियों संग, किन्ही ख्यालों में गुम,
धूप की आहट लिए, सुस्त सी हवाएँ,
कभी आंगन में यूं ही टांगे पसारे,
यूं आसमां तले, धूप में बैठने की ललक,
संग-संग यूं ही गर्म होता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

Tuesday, 12 April 2016

बिखरे सपने

मेरे सपनों की माला में, सजते कुछ ऐसे मोती,
खुशियाँ बिखरती चहुँ ओर, प्रारब्ध इक जैसी होती!

जीवन ऐसे भी धरा पर, बिखरे हैं जिनके सपने,
टूटी हैं लड़ियाँ माला की, बस टीस बची है मन में,
चुन चुनकर मोतियों को, सहेज रखे हैं उसनें,
सपने हसीन लम्हों के, पर उनके जीवन से बेगाने।

प्रारब्ध ही कुछ ऐसा, नियति ही कुछ ऐसी,
खुशियों के असंख्य पल बस हाथों को छूकर गुजरी,
बुनते रहे वो लड़ियाँ ही, मोतियाँ सब दामन से फिसली,
माला उस जीवन की खुद ही टूट-टूट कर बिखरी।

ऎसे भी जीवन जग में, साँसें चँद मिली हैं जिनको,
कैसे होते हैं सुख के पल, झलक भी मिल सकी न उनको,
उनके भी तो जीवन थे, फिर जन्म मिली क्युँ उनको?
किन कर्मों की सजा, उस विधाता नें दी है उनको।

मेरे सपनों की माला में सजते कुछ ऐसे ही मोती,
सपने पूरे कायनात की सजती बस इक जैसी,
हसते खेलते सभी जीवन में, कोलाहल क्रंदन ये कैसी?
खुशियाँ बिखरती धरा पर, प्रारब्ध सब की इक जैसी!

Tuesday, 1 March 2016

मेरी दुल्हन

सिहरित उल्लास सशंकित विश्वास उस दुल्हन की!

वो पहली झलक मेरे दुल्हन की,
सिन्दूरित मुख लाल सौम्य दैदिप्य सी,
खुशबु वो कच्ची कच्ची हल्दी सी,
हाथों में दूर मेंहदी की लाली सी,
मंजर ऐसी जैसे आम मंजराई सी|

सिहरित उल्लास सशंकित विश्वास उस दुल्हन की!

अलबेली झलक उस दुल्हन की,
खुद को खुद में ही जैसे सिमटाई सी,
सुध बुध खोई सिमटी शरमाई सी, 
आँचल के कोरों में वो लिपटी सी,
चाह मन की थोड़ी थोड़ी मंजराई सी|

सिहरित उल्लास सशंकित विश्वास उस दुल्हन की!

चेहरे पर उसके एक भाव डर की,
शंका दुविधा कैसी मन में गहराई सी,
उलझन के बादल मन पर छाई सी,
हृदय व्यथित, विचलित, घबराई सी,
आँखों में उसकी नव जीवन मंजराई सी|

सिहरित उल्लास सशंकित विश्वास उस दुल्हन की!