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Tuesday, 6 March 2018

इक परिक्रमा

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

है कई सवाल, पर जवाब एक ही!
कई रास्तों पर सफर, बसर है बस वहीं!
थक गए अगर, मुड़ गए कदम वहीं,
नींद में, नाम वही लेती जिन्दगी!
अविराम परिक्रमा सी, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

सौ-सौ शिकवे, शिकायतें उनसे ही,
मुहब्बत की हजारों, रवायतें उनसे ही,
हकीकत में ढलती, रवानी वही!
परिक्रमा करती, इक कहानी वहीं,
अहद-ए-वफा निभाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

इक छोर है यहाँ, दूजा छोर कहीं
विश्वास के डोर की, बस धूरी है वही,
उसी धूरी के गिर्द, ये परिक्रमा,
ज्यूं तारों संग, नभ पर वो चन्द्रमा!
कोई प्रेमाकाश बनाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

Tuesday, 27 February 2018

प्रश्न से परहेज

क्यूं परहेज तुझे है मेरे प्रश्नों से?
है यक्ष प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

जबकि .....
मेरी प्रश्न के केन्द्रबिंदु हो तुम!
मेरी अनगिनत प्रश्नों में सर्वश्रेष्ठ हो तुम!
मेरी अभिलाषा में इक ख्वाब हो तुम!
मेरी अनसुलझी सी इक सवाल हो तुम!
मेरी अश्कों में बहते से इक आब हो तुम!
मेरी जिज्ञासा के जवाब हो तुम!

फिर परहेज तुझे क्यूं मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

शायद ....
इस अथाह सृष्टि के थाह हो तुम!
या इस सृष्टि की हद के उस पार हो तुम?
प्रकृति का विस्मित रूप हो तुम!
या चिरपरिचित सी कोई स्वरूप हो तुम!
या हो वसुंधरा के आलिंगन का श्रृंगार तुम!
या कूकती करुण पुकार हो तुम!

परहेज तुझे क्यूं है मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

सर्वदा....
इक प्रश्न ही बने रह जाओगे तुम!
या इस पहेली को सुलझाओगे भी तुम!
या बनकर चाहत रह जाओगे तुम!
मन को प्रश्न बनकर उलझाओगे तुम!
या मुझसे ही इक प्रश्न कर जाओगे तुम!
यूं जिज्ञासा को ही बढ़ाओगे तुम!

क्यूं परहेज तुझे है मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!