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Saturday, 24 June 2023

जीत

मन में लिए, कई उलझन,
पहली बार, विदा हो आई जब मेरे आंगन,
शंकाओं भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

पर, कहीं, थी इक लगन,
मध्य उलझनों के, विहँसता रहा तेरा मन,
उम्मीदों भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

झौंक जाते, तप्त पवन,
चौंक जाते हर आहटों पर, तेरे हृदयांगन,
ममत्व भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

बिता चुके, इक जीवन,
हर वक्त, संग मेरे इसी देहरी इसी आंगन,
निस्वार्थ सा,
स्वत्व से परे, तेरा मन!

जाने कब हारा ये मन,
तेरे ही नैनों की गलियों में, बेचारा ये मन,
मैं हैरान सा,
छू लूं, प्यारा तेरा मन!

तुम बिन सूना जीवन,
अब तुम बिन, राहों में कितने हैं उलझन,
सब मैं हारा,
जीत चला, तेरा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 March 2022

हार जाता हूँ

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं, 
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 23 December 2021

आईना

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!

दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!

छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!

उसी शून्य में, कभी झांकना, 
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 26 August 2019

चेतना

निष्काम, स्वभाव धरें हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!

बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!

कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!

डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 30 October 2017

हार-जीत

बयाँ कर गई मेरी बेबसी, उनसे मेरे आँखो की ये नमी!

नीर उनकी नैनों में, शब्द उनके होठों पे,
क्युँ लग रहे हैं बरबस रुके हुए?
शायद पढ़ लिया हैं उसने कहीं मेरा मन!
या मेरी आँखे बयाँ कर गई है बेबसी मेरे मन की!

घनीभूत होकर थी जमी,
युँ ही कुछ दिनों से मेरी आँखों में नमी,
सह सकी ना वेदना की वो तपिश,
गरज-बरस बयाँ कर गई, वो दबिश मेरे मन की!

ओह! मनोभाव का ये व्यापार!
संजीदगी में शायद, उनसे मैं ही रहा था हार!
संभलते रहे हँसकर वो वियोग में भी,
द्रवीभूत से ये नैन मेरे, कह गई सब मेरे मन की!

उनसे कह न पाते जो शब्द मेरे,
विस्तारपूर्वक कह गई थी उनसे मेरी नमी!
उस हार मे भी था जीत का एहसास,
विहँस रहे नैन उनके, समझ चुके वो मेरे मन की!

अब विहँसते हैं नैन उनके, समझते है वो मेरे मन की!