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Saturday, 12 October 2019

नदी किनारे

डूब कर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

एक विरोधाभास, दो मनोभाव,
एक निरंतर बहती नदी, दो प्रभाव,
इच्छाओं से, जिजीविषा तक!
दो विपरीत कामनाएं, एक ही फैलाव,
सिमट आते हैं सारे, नदी किनारे!

जीवित है, धूल में इक आशा,
कभी तो, रीत जाएगी वो जरा सा,
नदी, खुद आएगी उस तक!
फूल सा, खिल जाएगी वो भीग कर!
धूप सहती है धूल, नदी किनारे!

सुदूर पड़ी, वो धूल हैं आकुल,
सदियों से, मन उनके हैं व्याकुल,
नदी, कब आएगी उस तक?
कब फूल, बन पाएंगी वो खिल कर?
पछताती वो धूल, नदी किनारे!

आश-निराश के, ये दो कण,
तृप्ति-अतृप्ति के, वो मौन क्षण,
पसरा, नदी का वो आँचल,
खामोश बहती, कल-कल सी जल,
चुप-चुप हैं सारे, नदी किनारे!

डूबकर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 30 October 2017

हार-जीत

बयाँ कर गई मेरी बेबसी, उनसे मेरे आँखो की ये नमी!

नीर उनकी नैनों में, शब्द उनके होठों पे,
क्युँ लग रहे हैं बरबस रुके हुए?
शायद पढ़ लिया हैं उसने कहीं मेरा मन!
या मेरी आँखे बयाँ कर गई है बेबसी मेरे मन की!

घनीभूत होकर थी जमी,
युँ ही कुछ दिनों से मेरी आँखों में नमी,
सह सकी ना वेदना की वो तपिश,
गरज-बरस बयाँ कर गई, वो दबिश मेरे मन की!

ओह! मनोभाव का ये व्यापार!
संजीदगी में शायद, उनसे मैं ही रहा था हार!
संभलते रहे हँसकर वो वियोग में भी,
द्रवीभूत से ये नैन मेरे, कह गई सब मेरे मन की!

उनसे कह न पाते जो शब्द मेरे,
विस्तारपूर्वक कह गई थी उनसे मेरी नमी!
उस हार मे भी था जीत का एहसास,
विहँस रहे नैन उनके, समझ चुके वो मेरे मन की!

अब विहँसते हैं नैन उनके, समझते है वो मेरे मन की!