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Saturday, 24 April 2021

टूटता पुरुष दंभ

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

पर तुम थे, बस, दो बातों के भूखे,
स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे,
आसां था कितना, तुझको अपनाना,
तेरे उर की, तह तक जाना,
कुछ भान हुआ, अब यह मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे,
निज को भूले, संग हमारे,
था स्वीकार तुझे, निःस्वार्थ समर्पण, 
पुरुष दंभ पर, स्व-अर्पण,
एहसास हो चला, अब ये मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

उर पर, अधिकार कर चले तुम,
हार चले, यूँ पल में हम,
दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
मन, कब हाथों से छूटा,
अब तक, भान हुआ ना मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
कुछ किश्तों में ही तैयार,
इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
इक आंगन, दो उर का,
शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 5 January 2020

ओस

गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!

शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!

अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!

देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!

कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 26 August 2019

चेतना

निष्काम, स्वभाव धरें हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!

बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!

कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!

डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 10 September 2018

बरसते घन

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, रोज ही भर ले आती हैं बूँदें,
भटकती है हर गली, गुजरता हूँ जिधर मैं,
भीगोती है रोज ही, ढूंढकर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

थमती ही नहीं, बूँदों से लदी ये घन,
बरसकर टटोलती है, रोज ही ये मेरा मन,
पूछती है कुछ भी, रोककर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

जोड़ गई इक रिश्ता, मुझसे ये घन,
कभी ये न बरसे, तो बरसता है मेरा मन,
तरपाती है कभी, यूँ छेड़कर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, निःसंकोच भिगोती है मुझे,
निःसंकोच मैं भी, कुछ कह देता हूँ इन्हें,
ये रोकती नही, कुछ कहने से मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

यूँ निःसंकोच, मिलती है रोज मुझे,
तोहफे बूँदों के, रोज ही दे जाती है मुझे,
भीगना तुम भी, भिगोए जो ये तुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

निःस्वार्थ हैं कितने, स्नेह के ये घन,
सर्वस्व देकर, हर जाती है धरा का तम,
बरस जाती हैं, अरमानों के ये बूँदें....

थमती ही नही, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

Sunday, 20 May 2018

स्वार्थ

शायद, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

तेरी मोहक सी मुस्काहट में,
अपने चाहत की आहट सुनता हूं
तेरी अलसाए पलकों में,
सलोने जीवन के सपने बुनता हूं,
उलझता हूं गेसूओं में तेरे,
बाहों में जब भी तेरे होता हूं,
जी लेता हूं मैं तुझ संग,
यूं सपने जीवन के संजोता हूं,
हाँ तब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

भीगे तेरे आँसू में
दामन भी मेरे,
छलनी मेरा हृदय भी
हुआ दर्द से तेरे,
डोर जीवन की मेरी
है साँसों में तेरे,
मेरी डोलती नैया
है हांथों में तेरे,
यही तो हैं स्वार्थ....
मै वश में जिनके रहता हूं...
फिर, कैसे हुआ मैं निःस्वार्थ...
हाँ इनमें भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी, मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

कोई छोटी सी बात भी मेरी,
न बनती है बिन तेरे,
है तुझ पे ही पूर्णतः निर्भर,
मेरे जीवन के फेरे,
संतति को मेरी...
शरण मिली कोख में ही तेरे,
जीवन की इन राहों पर
इक पग भी
न चल पाया मैं बिन तेरे,
फिर, कहां हुआ मैं निःस्वार्थ,
हाँ अब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

सब कहते हैं इसको ही प्यार....
पर, इसमें मैं अपने
स्वार्थ का संसार देखता हूं ....
बिल्कुल, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

(स्वार्थवश...., पत्नी को सप्रेम समर्पित)

Tuesday, 14 June 2016

वो तस्वीर

बनती-बिगरती बादलों में उलझी सी इक तस्वीर,

हर क्षण रंग रूप बदलती वो तस्वीर,
पल पल दृग को वो छलती,
मनमोहक भावों से वो मन को हरती,
खुली जटाओं मे बादल की कहीं गुम हो जाती,

बरसती-बिखरती बादलों में बिखरी सी वो तस्वीर,

आकाश में फिर उभरती वो तस्वीर,
बादलों संग अठखेलियाँ करती,
चंचल सी स्वच्छंद विचरती वो तस्वीर,
भावप्रवण मन को कर खुद भावविहीन हो जाती,

जीवन के कितने ही किस्से कह जाती वो तस्वीर,

निःस्वार्थ जीवन जीती वो तस्वीर,
कुछ पल जग के दुख हर लेती,
आँखों में सपने जीने के भरती वो तस्वीर,
कर्मों की राह पर चलती फना हर बार वो होती,

कर्मपथ पर चलना सिखाती उलझी सी वो तस्वीर।

Friday, 29 January 2016

निःस्वार्थ

चिलचिलाती सी धूप में,
निहारता किसी छाँव की ओर,
देख विशाल एक वटवृक्ष,
बढ पड़े कदम उस ओर।

विश्राम कुछ क्षण का मिला,
मिली चैन की छाँव भी,
कुछ वाट वटोही मिले,
हुई कुछ मन की बात भी।

मंद हवा के चंद झौंके मिले,
कांत हृदयस्थल हुआ,
कुछ अनोखे भाव जगे,
प्रश्न अनेंकाें फिर मन में उठे।

विशाल वटवृक्ष महान कितना,
ताप धूप की खुद सहकर,
निःस्वार्थ छाँव पथिक को दे गया,
शीतल तन को कर मन हर ले गया।