तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !
हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!
देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!
तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!
देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!
मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!
देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!
जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं,
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!
देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!
तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-3-22) को "खिलता फागुन आया"(चर्चा अंक 4370)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
सादर आभार।।।।
Deleteपुरुषोत्तम भाई, खुद हारने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए। सच्चा प्यार करनेवाला ही इतना बड़ा दिल कर सकता है। बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया ज्योति बहन।।।।
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