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Monday, 25 May 2020

कचोट

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

अकाल था, या शून्य काल?
कुछ लिख भी ना पाया, इन दिनों....
रुठे थे, जो मुझसे वे दिन!
छिन चुके थे, सारे फुर्सत के पल,
लुट चुकी थी, कल्पनाएँ,
ध्वस्त हो चुके थे, सपनों के शहर,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

विहान था, या शून्य काल?
हुए थे मुखर, चाहतों में पतझड़....
ठूंठ, बन चुकी थी टहनियाँ,
कंटको में, उलझी थी कलियाँ,
था, अवसान पर बसन्त,
मुरझाए थे, भावनाओं के गुलाब,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

सवाल था, या शून्य काल?
लिखता भी क्या, मैं शून्य में घिरा....
अवनि पर, गुम थी ध्वनि!
लौट कर आती न थी, गूंज कोई,
वियावान, था हर तरफ,
दब से चुके थे, सन्नाटों में सृजन,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 7 September 2019

ठहरे क्षणों में

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

व्यस्त से क्षणों में, तमाम उलझनों में,
मुझको, भूल तो जाओगे तुम,
और कहीं, विलीन हो जाएंगे हम,
यादों के, इन मिटते घनों में,
उभर आएं, कभी गर टीस बनकर हम,
उकेरना फिर, तुम उन बादलों को,
मुड़ कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

भूले-बिसरे क्षणों में, झांकता है कौन?
फुर्सत किसे है, ताकता है कौन?
सोच पर गिर जाते हैं, भरम के पर्दे!
पर मांगता हूँ, मैं वो ही यादें,
ठहर जाएँ, कहीं गर संवाद बन के हम,
कुरेदना फिर, तुम उन्हीं क्षणों को,
ठहर कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

ठहरे क्षणों में, मैं रुका हूँ उन्ही वनों में,
गुम हैं जहाँ, जीवंत से कहकहे,
पर संग है मेरे, लम्हे कई बिखरे हुए,
लट घटाओं के, सँवरे हुए,
बरस जाएँ, कभी ये घटाएँ बूँदें बनकर,
घेर ले कभी, तुम्हें सदाएं बनकर,
भीग कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 25 August 2018

अधूरा संवाद

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
झूठमूठ ही, चाहे कुछ भी बतियाना,
या मेरी बातों में तुम खो जाना,
मुझको करनी है तुमसे, पूरी मन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

भटका सा था मैं इक बंजारा,
तेरी ही पनघट पर था मैं तो ठहरा,
कुछ छाँव मिली मैं सब हारा,
बड़ी अद्भुद सी थी, उस छैय्यां की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

छाँव घनेरी, थी वो बरगद सी,
इक मंद बयार, वहीं थी आ ठहरी,
करता भी क्या अब मैं बेचारा,
उस बयार में थी, शीतल सी कोई बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

अति लघु जुड़ाव जीवन का,
लधुत्तर फुर्सत के ये चंद लम्हात,
चुप चुप सी हो तुम क्यूं बोलो,
कह दो ना तुम, कुछ अनसूनी सी बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
रिक्त कभी ना, ये झूला कर जाना,
इन बाहों का हो ना रिक्त शृंगार,
रिक्त ना रह जाए, आलिंगन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

Saturday, 2 June 2018

ललक

चुरा लाया हूं बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

कलकल से बहते किसी पल में,
नर्म घास की चादर पर, कहीं यूं ही पड़े हुए,
एकटक बादलों को निहारता मैं,
वो घुमड़ते से बादल, जैसे फैला हों आँचल,
बूंद-बूंद बादलों से बरसती हुई फुहारें,
वो बेपरवाह पंछियों की कतारें,
यूं हौले से फिर, मन मे भीगने की ललक,
बूंद-बूंद यूं संग भीगता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से वो ही झलक!
इक ललक, जो बाकी है अब तलक.....

ठंढ से ठिठुरते हुए किसी पल में,
चादरों में खुद को लपेटे, सिमटकर पड़े हुए,
चाय की प्याली हाथों में लिए मैं,
गर्म चुस्कियों संग, किन्ही ख्यालों में गुम,
धूप की आहट लिए, सुस्त सी हवाएँ,
कभी आंगन में यूं ही टांगे पसारे,
यूं आसमां तले, धूप में बैठने की ललक,
संग-संग यूं ही गर्म होता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

Saturday, 30 July 2016

मन की मन में रही

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

बात कोई अनकही क्यों कभी उस ने गढ़ी?
कह न सके लफ्जों में जिसे मन सदा कहता वही,
झाँकता कोई मन में अगर देखता वो अनकही,
टटोलता मन को अगर जानता मन की कही,
कौन सुने मन की मगर, बात रही बस मन में दबी!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

अनकही बातों से ही, रचता है मन इक दुनियाँ नई,
खिलते हैं यहाँ कितने ही कँवल, जिसे देखता कोई नहीं,
बहती हैं धार करुणा की यहाँ, जिसे जानता कोई नहीं,
दर्द में कभी रोता भी मन, आहें यहाँ कितनी छुपी,
मन की गरज किसको मगर, मन की सदा मन में रही!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

दुनियाँ की इस भीड़ में, मन तो है इक अजनबी,
है फुर्सत किसको यहाँ, झाँकता कोई मन में नहीं,
झंकार सिक्कों की मगर, जानता है हर कोई,
हालात के मारे हैं सब, जज्बात मन के है यहाँ दुखी,
क्या मारकर मन को यहाँ, जी रहें दुनियाँ में सभी....?

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

Wednesday, 6 April 2016

कल मिले ना मिले

 
दरमियाँ जीवन के इन वयस्त क्षणों के,
स्वच्छंद फुर्सत के एहसास भी हैं जरूरी! ..सही है ना?

दरमियाँ इन धड़कते दिलों के,
धड़कनों के एहतराम भी हैं जरूरी !
कही खो न जाएँ यहीं पे हम,
खुद से खुद का पैगाम भी है जरूरी!

तुम सितारों मे घुमती ही रहो,
नजरों से जमीं का दीदार भी है जरूरी!
आईने मे खुद का दीदार कर लो,
तारीफ चेहरे को गैरों की भी है जरूरी!

जिन्दगी में कितना ही सफल हो,
खुशी पर अपनों की खुशी भी है जरूरी!
जिन्दगी में तुम मिलो न मिलो,
मिलते रहने की कशिश भी है जरूरी!

मौसमों की तरह रंग बदल लो,
मौसम रिमझिम फुहार के भी हैं जरूरी!
कल वक्त ये फिर मिले ना मिले,
आज जी भर के जी लेना भी है जरूरी!

दरमियाँ जीवन के इन वयस्त क्षणों के,
स्वच्छंद फुर्सत के एहसास भी हैं जरूरी! ..सही है ना?

Sunday, 10 January 2016

दिल ढूंढता

फुर्सत के क्षण मन बेचैन, बेचैनियों से फुर्सत कहाँ,
दिल क्युँ ढूंढता फिर वही, बेचैन लम्हों के रात दिन।

तलाश जिस सुकून की मिलती वो इन बेचैनियों मे,
लम्हात उन्ही मुफलिसी के दिल ढूंढता रहता रात दिन।

अक्सर बेचैनियों के बादल छाते दिल के आकाश पर,
सुकून वही फिर दे जाते जिन्हे दिल ढूंढता रात दिन।