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Saturday, 9 January 2021

विचलन

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

यूँ लगता है, जैसे!
शायद, अछूता ही था, 
अब तक मैं!
जबकि, कितनी बार,
यूँ, छूकर गुजरी थी मुझको,
ख्यालों की आहट!
बदलते मौसम की मर्माहट,
ये ठंढ़क, ये गर्माहट,
बारिश की बूँदें!

यूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!

क्यूँ रहता, बेमानी!
भीगी, पलकों का पानी,
प्यासा सा!
रेतीला, इक मरुदेश!
और, विहँसता नागफनी!
पलता इक द्वन्द!
पल-पल, सुलगती गर्माहट,
इक चिल-चिलाहट,
विचलन, मन की घबराहट,
क्या, बुझाएंगी प्यास?
बारिश की बूँदें!

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 5 March 2016

रेत का समुन्दर

सब कहते हैं मुझको रेत का समुन्दर,
उन्हे नहीं पता क्या-क्या है मेरे अन्दर,
हूँ तो समुन्दर ही,भले रेत का ही सही,
एक दुनियाँ पल रही है मेरे अन्दर भी।

रेत तपकर ही बनती है मृग-मरिचिका,
तपती रेत पाँवों को देती असह्य पीड़ा,
चक्षु दिग्भ्रमित कर देती मृगमरीचिका,
समुंदर रेत का ही पर अस्तित्व है मेरा।

गर्मी रेत की शीतल हो जाती रातों में,
मरीचिका रेत की, है सुन्दर ख्वाबों में,
पल जाती है नागफनी भी  इस रेत में,
विशाल रेगिस्तान दिखती है सपनों में।

गर्भ में रेत के रहती हैं जिन्दगियाँ कई,
गर्भ में रेत की जीवन सुंदर नई नवेली,
करोड़ों आशाएँ  दफन रहती रेत में ही,
समुन्दर रेत का मगरअस्तित्व मेरा भी।

उथली जल धार टिकती मुझ पर नहीं,
सोख लेता हूँ प्राण, मैं उथले जल की,
स्नेह नहीं स्वीकार, मुझको बूंदों जैसी,
रेत का समुन्दर अपार जलधार प्यारी।