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Wednesday, 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)