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Thursday, 26 July 2018

स्वप्न मरीचिका

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!

भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!

मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!

छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!

सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

Tuesday, 18 October 2016

मानसरोवर

तुम देखो ना, खिल आए हैं कमल असंख्य,
तैरते है हर पल ये मेरी हृदय के मानसरोवर में,
कुछ दिखती हैं ये तेरी यादों की परछाई सी,
लगती है कुछ तेरी बातों की अमराई सी,
कुछ बीते लम्हों की नटखट तरुणाई सी,
तुम झांको ना, मेरी हृदय के मानसरोवर में....

तुम देखो ना, प्यारे कितने हैं ये कमल असंख्य,
श्रृंगार विविध रूप के तेरे, उभर आए हैं इनमें,
कुछ मुस्कान लिए तेरे चेहरे के आभा सी,
स्वागत करती ये खुली खुली तेरी आँखों सी,
उभर आई है लालिमा इनमें तेरे होठों की,
तुम उतरो ना, मेरी हृदय के मानसरोवर में....

तुम देखो ना, कोमल कैसे हैं ये कमल असंख्य
करुणा का अगाध सागर जैसे आ सिमटा है इनमें,
कुछ शान्त, स्निग्ध भाव लिए तेरे मुखरे सी,
नर्म स्पर्श करती ये पंखुड़ियाँ तेरे हाथों सी,
लावण्य भर लाई जैसे ये ममतामयी तेरे सूरत की,
तुम आकर देखो ना, मेरी हृदय के मानसरोवर में....

खिल आए हैं कमल असंख्य तेरी ही परछाई के.....