Thursday, 26 July 2018

स्वप्न मरीचिका

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!

भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!

मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!

छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!

सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

6 comments:

  1. छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
    हम चले थे भ्रम की राह में,
    कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!
    बेहतरीन रचना आदरणीय

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  2. ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
    चाह कोई जागी हो मन में,
    यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!....बहुत ख़ूब आदरणीय
    सादर

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  3. मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
    जैसे पागल या कोई बंजारा,
    विचलित था मन, अब शांत हुआ!
    बहुत ही बेहतरीन रचना

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