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Thursday, 31 October 2019

उम्मीद

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

विपत्तियों के, ऊबते हर क्षण में,
प्रतिक्षण, जूझते मन में,
मंद पड़ते, डूबते उस प्रकाश-किरण में,
कहीं पलती है, इक उम्मीद,
उम्मीद की, इक महीन किरण,
आशा के, उड़ते धूल कण,
उम्मीदों के क्षण!

हौले से, कोई दे जाता है ढ़ाढ़स,
छुअन, दे जाती है राहत,
आशा-प्रत्याशा, ले ही लेती है पुनर्जन्म,
आभासी, इस प्रस्फुटन में,
कुछ संभलता है, बिखरा मन,
बांध जाते है टूटे से कोर,
उम्मीदों के डोर!

उपलाते, डगमगाते उस क्षण में,
हताश, साँसों के घन में,
अवरुद्ध राह वाले, इस जीवन-क्रम में,
टूटते, डूबते भरोसे के मध्य,
कहीं तैरती है, भरोसे की नैय्या,
दिखते हैं, मझधार किनारे,
उम्मीदों के तट!

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 4 December 2018

बीता कौन, वर्ष या तुम

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

कुछ पल मेरे दामन से छीनकर,
स्मृतियों की कितनी ही मिश्रित सौगातें देकर,
समय से आँख मिचौली करता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
एक यक्ष प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या बीता है कोई सुंदर सा स्वप्न,
या स्थायित्व का भास देता, कोई प्रशस्त भ्रम,
देकर किसी छाया सी शीतलता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनसुलझे प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या यथार्थ से सुंदर था वो भ्रम,
या अंधे हो चले थे, उस माधूर्य सौन्दर्य में हम,
यूँ ही चलते आहिस्ता-आहिस्ता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
क्रमबद्ध ये प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या प्रकृति फिर लेगी पुनर्जन्म,
या बदलेंगे, रात के अवसाद और दिन के गम,
यूँ ही पुकार कर अलविदा कहता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनबुझ से प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

फिर सोचता हूँ ....
क्रम बद्ध है - पहले आना, फिर जाना,
फिर से लौट आने के लिये .....
कुदरत ने दिया, आने जाने का ये सिलसिला,
ये पुनर्जन्म, इक चक्र है प्रकृति का,
अवसाद क्या जो रात हुई, विषाद क्या जो दिन ढला?

गर मानो तो....
बड़ी ही बेरहम, खुदगर्ज,चालबाज़ है ये ज़िदंगी,
भूल जाती है बड़ी आसानी से,
पुराने अहसासों, रिश्तों और किये वादों को,
निरन्तर बढ़ती चली जाती है आगे..
यूँ बीत चुका, और एक वर्ष....
शायद, कुछ वरक हमारे ही उतारकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

Saturday, 4 November 2017

जलता दिल

राख! सभी हो जाते हैं जलकर यहाँ,
दिल ये है कि जला...
और उठा न कहीं भी धुँआ!

है जलने में क्या?
बैरी जग हुआ दिल जला!
चित्त चिढा,
मन को छला,
दिल जला!
कहीं आग न कहीं दिया, दिल यूँ ही बस जला!

ये धुआँ?
दिल में ही घुटता रहा,
घुट-घुट दिल जला,
बैरी खुद से हुआ,
दिल को छला,
उठता कैसे फिर धुआँ, दिल के अन्दर ये घुला!

राख ही सही!
पश्चाताप की भट्ठी पर चढा,
बस इक बार ही जला,
अंतःकरण खिला......
स्वरूप बदल निखरा,
धुआँ सा गगन में उड़ा, पुनर्जन्म लेकर खिला।