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Wednesday, 28 July 2021

तन और मन

दिन-दिन, चिन्तित, ये तन गलै,
बेपरवा मन, अपनी ही राह चलै,
तन, कब चंचल मन की सुनै,
मन, तन की, कब परवाह करै!

सावन की बूँदों संग, भीगे तन,
भीगे से मौसम संग, तरसे ये मन,
भिन्न, परस्पर, तन और मन,
चुन कर, राह अलग, चले मन!

मन झांके, गुजरे से गलियों में,
खुश्बू ढूंढे, सूखे बन्द कलियों में,
भटके ये मन, उन वीरानों में,
रखा है क्या, उन अफसानों में!

धुँधलाती, वो राहें, वो गलियाँ, 
भरमाती है, वो बाहें, वो दुनियाँ,
बस तन्हाई, पलती हो जहाँ,
लौट वहाँ तब, जाए तन कहाँ!

तन का बैरी, येही चंचल मन,
चढ़ती उमर तले, ढ़ल जाए तन,
पाए चैन कहाँ, प्यासा मन,
तन की परवाह, करै कब मन!

दिन-दिन, तिल-तिल तन गलै,
बेफिक्र मन, अपनी ही राह चलै,
यह मन, कब तन संग ढ़लै,
दिन-दिन, मन, लापरवाह बनै!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 28 December 2017

अबकी बरस

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

सोच-सोच निंदिया न आए,
बैरी क्युँ भए तुम, दूर ही क्यूँ गए तुम?
वादा मिलन का, मुझसे क्युँ तोड़ गए तुम,
हुए तुम तो सच में पराए!
नैनों में ना ही ये निंदिया समाए,
ओ बैरी सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

भाल पे अब बिंदिया न भाए,
दर्पण में ये मुख अब मुझको चिढाए,
चूड़ियों की खनक, बैरन मुझको सताए,
बैठे हैं हम पलकें बिछाए,
हर आहट पे ये मन चौंक जाए,
क्यूँ भूले सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

पपीहा कोई क्यूँ चीख गाए?
हो किस हाल मे तुम, हिय घबराए?
हूक मन में उठे, तन  सूख-सूख जाये,
विरह मन को बींध जाए,
का करूँ मैं, धीर कैसे धरूँ मैं,
क्यूँ बिसारे सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

काश ये मन सम्भल जाए!
अबकी बरस सजन घर लौट आए!
छुपा के रख लूँ, बाहों मे कस लूँ उन्हें,
बांध लू आँचल से उनको,
फिर न जाने दूँ कसम देकर उन्हें,
काश! बैरी सजन, इस बरस घर लौट आए....

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

Wednesday, 5 April 2017

मन भरमाए

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

तू चल न तेज रे पवन, आस न मेरा डगमगाए,
उड़ती पतंग सा ये मन, न जाने किस ओर लिए जाए,
पागल सा ये मन, अब पल पल है ये घबराए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

ऐ सांझ के मुसाफिर, कोई साजन को ये बताए,
सांझ आने को हुई अब, कोई भूला भी घर लौट आए,
याद करके सारी कसमें, वादा तो अब निभाए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

लौ ये दीप की है जली, क्युँ न रस्ता तुम्हे दिखाए,
ये दो आँख मेरी है खुली, वो डेहरी ये हर क्षण निहारे,
पलकें पसारे ये रैन ढली, न चैन हिया में आए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

Thursday, 31 March 2016

ऐ मन तू चल कहीं

ऐ मन तू चल अब उस गाँव,
मनबसिया मोरा रहता जिस ठाँव!

निर्दयी सुधि लेता नहीं मेरी वो,
बस अपनी धुन में खोया रहता वो!

निस दिन तरपत ये काया गले,
ऐ मन तू चल अब बैरी से मिल ले!

विधि कुछ हो तो दीजो बताए,
हिय उस निष्ठुर के प्रेम दीजो जगाए!

क्या करना धन जब मन है सूना,
आ जाए वो वापस अब इस अंगना!

ऐ मन तू जा सुधि उनकी ले आ,
पूछ लेना उनसे उस मन में मैं हूँ क्या ?

साँवरे तुम बिसर गए क्युँ मुझको,
विह्वल नैन मेरे अब ढ़ूंढ़ रहे हैं तुझको!

ऐ मन तू ले चल कहीं उन राहों पर,
मनबसिया मेरा निकला था जिन राहों पर ।

Monday, 25 January 2016

छलके जो नीर

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

छलके जो नैनों से नीर,
सखी तू समझे न मन की पीड़,
तार तार बिखरा है मन का,
नीर बन मुख पे जो आ छलका,
नेह बैरी की बड़ी बेपीड़।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

भाव हृदय की वो न जाने,
मस्त मगन अपनी ही धुन पहचाने,
बुत पत्थर सा दिल उसका,
धड़कन की भाषा न जाने,
पोछे कौन अब नयनन के नीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

बह बह नीर ताल बन जाए,
भाषा नैनों की कोई उसको समझाए,
सखी काम तू ही मेरा ये कर दे,
पीड़ मेरी उस बैड़ी को कह दे,
बन जाऊँ मै उसकी हीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!