दिन-दिन, चिन्तित, ये तन गलै,
बेपरवा मन, अपनी ही राह चलै,
तन, कब चंचल मन की सुनै,
मन, तन की, कब परवाह करै!
सावन की बूँदों संग, भीगे तन,
भीगे से मौसम संग, तरसे ये मन,
भिन्न, परस्पर, तन और मन,
चुन कर, राह अलग, चले मन!
मन झांके, गुजरे से गलियों में,
खुश्बू ढूंढे, सूखे बन्द कलियों में,
भटके ये मन, उन वीरानों में,
रखा है क्या, उन अफसानों में!
धुँधलाती, वो राहें, वो गलियाँ,
भरमाती है, वो बाहें, वो दुनियाँ,
बस तन्हाई, पलती हो जहाँ,
लौट वहाँ तब, जाए तन कहाँ!
तन का बैरी, येही चंचल मन,
चढ़ती उमर तले, ढ़ल जाए तन,
पाए चैन कहाँ, प्यासा मन,
तन की परवाह, करै कब मन!
दिन-दिन, तिल-तिल तन गलै,
बेफिक्र मन, अपनी ही राह चलै,
यह मन, कब तन संग ढ़लै,
दिन-दिन, मन, लापरवाह बनै!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteखूबसूरत अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-07-2021को चर्चा – 4,140 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
विनम्र आभार
Deleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteबेपरवाह मन कथा अनंता । जिसे सुन्दर सृजन के द्वारा सूक्ष्म अभिव्यक्ति दी है । हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
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