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Wednesday, 28 July 2021

तन और मन

दिन-दिन, चिन्तित, ये तन गलै,
बेपरवा मन, अपनी ही राह चलै,
तन, कब चंचल मन की सुनै,
मन, तन की, कब परवाह करै!

सावन की बूँदों संग, भीगे तन,
भीगे से मौसम संग, तरसे ये मन,
भिन्न, परस्पर, तन और मन,
चुन कर, राह अलग, चले मन!

मन झांके, गुजरे से गलियों में,
खुश्बू ढूंढे, सूखे बन्द कलियों में,
भटके ये मन, उन वीरानों में,
रखा है क्या, उन अफसानों में!

धुँधलाती, वो राहें, वो गलियाँ, 
भरमाती है, वो बाहें, वो दुनियाँ,
बस तन्हाई, पलती हो जहाँ,
लौट वहाँ तब, जाए तन कहाँ!

तन का बैरी, येही चंचल मन,
चढ़ती उमर तले, ढ़ल जाए तन,
पाए चैन कहाँ, प्यासा मन,
तन की परवाह, करै कब मन!

दिन-दिन, तिल-तिल तन गलै,
बेफिक्र मन, अपनी ही राह चलै,
यह मन, कब तन संग ढ़लै,
दिन-दिन, मन, लापरवाह बनै!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Thursday, 31 May 2018

वृथा ये अभिमान

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

दो घड़ी का बस है ये जीवन,
इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!

है वृथा का ये अभिमान.....

इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!

है वृथा का ये अभिमान.....

मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

Saturday, 13 January 2018

अलाव

रात भर जलती रही थी उसके मन की अलाव...

नंगे बच्चों की भूख, तड़प की पीड़ा,
माथे पे शिकन, आँखों में जलन, काँपता तन,
सुलगाती रही उस मन में इक अलाव....
न आया कोई भी सुधि लेने उस अलाव की...

ठिठुरती ठंढ़ मे, क्षणिक राहत को,
चौराहे पर भी जलाई गई थी इक अलाव,
ठहाकों की गूंज में डूबा था वो गाँव,
पर जलाती रही थी उसे, मन की वो अलाव ....

मन की अलाव भारी पड़ी थी ठंढ़ पर,
निकल पड़ा वो बेचारा काम की तलाश पर,
बच्चों के पेट की सुलगती वो अलाव,
जलाती रही ठंढ मे भी चिंगारी बन बनकर....

कुछ पैसे आए थे उसकी हाथों पर,
कम थे फिर भी वो, महंगाई के अलाव पर,
तनाव दे गई थी वो जलती अलाव,
आज भी न बुझनी थी मन की वो अलाव...

रात भर जलती रही, फिर उस मन की अलाव!
और, चौराहे पर भी जलती रही इक अलाव!

Monday, 19 June 2017

खिलौना

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?
माटी सा ये तन ढलता जाए क्षण-क्षण,
माटी से निर्मित है यह इक क्षणभंगूर खिलौना।

बहलाया मन को तूने इस तन से,
जीर्ण खिलौने से अब, क्या लेना और क्या देना?
बदलेंगे ये मौसम रंग बदलेगा ये तन,
बदलते मौसम में तू चुन लेना इक नया खिलौना।

है प्रेम तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
बीते उस क्षण से अब, क्या लेना और क्या देना?
क्युँ रोए है तू पगले जब छूटा ये तन,
खिलौना है बस ये इक, तू कहीं खुद को न खोना।

मोह तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
मोह के उलझे धागों से क्या लेना और क्या देना?
बढाई है शायद मोह ने हर उलझन,
मोह के धागों से कहीं दूर, तू रख अब ये खिलौना।

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?

Sunday, 2 October 2016

हल्की सी हवा

हल्की सी वो हवा थी, जो हौले से तन को छू गई....

वादी वो हरी-हरी खिली-खिली सी,
झौंके हवाओं के हल्के से, मदहोश कर गई,
गुनगुनाने लगा है मन उन वादियों में कहीं,
चल पड़े हैं बहके कदम मेरे, दिशाहीन से कहीं....

हल्की सी वो सिहरन थी, जो हौले से तन को छू गई....

शायद कल्पनाओं की है ये इक लरी,
शब्द मेरे ही गीतों के, वादी में गुंज रही हैं कहीं,
मुस्कुराने लगा है मन, हवा ये कैसी चली,
थिरक रहे हैं रोम-रोम, धुन छिड़ी है ये कौन सी.....

हल्की सी वो चुभन थी, जो हौले से तन को छू गई....

सच कर लूँ मैं भरम मन के वही,
दोहरा लूँ फिर से वही अनुभव सिहरन भरी,
बह जाये वो पवन, इन्ही वादियों में कहीं,
दिशाहीन बहक लूँ मैं, सुन लूँ इक संगीत नई......

हल्की सी वो अगन थी, जो हौले से तन को छू गई....

Monday, 18 July 2016

ओ मेरे साजन

फुहारें रिमझिम की लेकर आई फिर साजन की यादें..........

घटाओं ने आँचल को बिखेरे हैं यूँ झूम-झूमकर,
बिखरी हैं बूंदें सावन की तन पर टूट-टूटकर,
वो कहते हैं इसको, है यह सावन की पहली फुहार,
मन कहता है, साजन ने फिर आज बरसाया हैं मुझ पर प्यार।

साजन मेरा साँवला सा, है सावन का वो संगी,
साथ-साथ रहते हैं दोनो, उन घटाओं के उपर ही,
वो कहते है, बावला है प्रियतम तेरा बरसाता है फुहार,
मन कहता है, दीवाना है साजन मेरा करता वो मुझसे गुहार।

ओ काले बादल जाकर मेरे साजन से तुम ये कहना,
छुप-छुपकर बूँदों से मेरे तन को ना सहलाए,
कोरा आँचल भींगा-भीगा सा पहना है मैंने भी तन पर,
लहरा दे इनको भी प्यार से, छलका दे ऱिमझिम सी फुहार।

ओ मेरे नटखट साँवले से मधुप्रिय साजन,
तुम झिटको फिर से घटाओं का ये भींगा सा आँचल,
पड़ने तो फुहार ऱिमझिम की तन पर टूट-टूटकर,
भीगे ये काया, भीगे ये मन, भीग जाए मेरे आँगन की बहार।

Monday, 22 February 2016

निर्वाण की कठिन यात्रा

निर्वाण की अकल्पित कठिन यात्रा,
पल पल तय कर रहा इन्सान,
राह कठिनतम इस जीवन की,
लक्ष्र्य कर्म के यहाँ महान,
निर्वाण की राह चलता जा रहा इन्सान।

पल भर रूक सोचता मन में,
निर्वाण मिलेगा पर कैसे जीवन में,
लक्ष्य क्या साधने होंगे राहों में,
कितने विष पड़ेंगे जीवन के पीने,
निर्वाण पाएगा क्या तन इस जीवन में?

तन और मन में द्वंद चल रहा निरंतर,
तन कहता तू राह मोह की पकड़,
मन कहता तू जीवन की माया के संग चल,
विवेक पिस रहा मध्य इस अन्तर्द्वन्द के,
इच्छाएँ मन और तन की भारी निर्वाण पर।

नियंत्रण इन इच्छाओं पर करता,
राह निर्वाण की तय कर रहा इन्सान,
जीवन की इस महा-कर्मक्षेत्र में,
लघु इच्छाओं को तज, साधे लक्ष्य को,
यह कठिन यात्रा पल पल कर रहा इन्सान।