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Friday, 3 June 2016

जुल्फों के पेंच

उलझी हैं राहें तमाम,
इन घने जुल्फों के पेंच में,
सवाँरिए जरा इन जुल्फों को आप,
कुछ पेंचों को कम कीजिए।

बादल घनेरे से छाए हैं,
लहराते जुल्फों के साए में,
समेटिए जरा जुल्फों को आप,
जरा रौशन उजाला कीजिए।
तीर नजरों के चले हैं,
जुल्फ के इन कोहरों तले,
संभालिए अपनी पलकों को आप,
वार नजरों के कम कीजिए।

तबस्सुम बिखर रहे हैं,
चाँदनी रातों की इस नूर में,
दिखाईए न यूँ इन जलवों को आप,
इस दिल पे सितम न कीजिए।

भटके हैं यहाँ राही कई,
दुर्गम घने इन जुल्फों की पेंच में,
लहराईए न अब इन जुल्फों को आप,
इस राहगीर को न भटकाईए।

Sunday, 20 March 2016

भटकता मन

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

तम रात के साए में,
कदमों के आहट हैं ये किसके,
सन्नाटे को चीरकर,
ज उठे हैं फिर प्राण किसके।

चारो तरफ विराना,
फिर धड़कनों में बजते गीत किसके,
मन मेरा जो आजतक मेरा था,
अब वश में किस कदमों की आहट के।

टटोलकर मन को देखा तब जाना...

वो तो मेरा एकाकी मन ही है
भटक रहा है जो इस रात के विराने में,
वो तो हृदय की गति ही मेरी है,
धड़क रही जो बेलगाम अश्व सी अन्तः में।

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

Saturday, 13 February 2016

स्वर नए गीत के गा

धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

रहता था आसमाँ पर एक तारा यही कहीं,
गुजरा था टूट कर एक तारा कभी वहीं,
मिलते नही वहाँ उनकी कदमों के निशान अब,
रौशनी है प्रखर, पर दिखती नही राह अब।

भटक रहे हैं हम किन रास्तों पे अब?
दिखते नही दूर तक मंजिलों के निशान अब,
अंतहीन रास्तों मे भटका है अब कारवाँ,
बिछड़ी हुई हैं मंजिले, भटकी हुई सी राह अब।

बेसुरी लय सी रास्तों के गीत सब,
बजती नही धुन कोई भटकी हुई राहों में अब,
आरोह के सातों स्वर हों रहे अवरुद्ध अब,
धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

Saturday, 6 February 2016

भटकता कारवाँ

मंजिलों से दूर कहीं भटक रहा कारवाँ,
कौन जाने कब मिलती है मंजिलें कहाँ,
सूझता नही है कुछ उन रास्तों पर वहाँ,
धूँध सी हर तरफ अब फैली हुई है यहाँ।

ढ़ूंढ रहा दर बदर उनके कदमों के निशाँ,
भटक रही है जिन्दगी अब यहाँ से वहाँ,
धूँध में खो रही इस जिन्दगी की कारवाँ,
रास्तों पर यहीं कहीं छूटा है वो हमनवाँ।

ये कौन सी खलिश फैली हुई यहाँ वहाँ,
छटती नहीं धूँध क्यों रास्तों पे अब वहाँ,
नूरे नजर की अगर रौशनी मिलती यहाँ,
मंजिले ढूंढ़ लेती  जिन्दगी की कारवाँ।

Wednesday, 20 January 2016

लक्ष्य

क्या लक्ष्य तेरा कहीं भटक चुका है?

साथ चला तू,
जिसे लेकर जीवन भर,
जिसकी फिक्र तू,
करता रहा सारी उमर,
वह मात्र स्थुल शरीर नहीं हो सकता?

क्या मार्ग तेरा गलत दिशा मुड़ चुका है?

तेरी चिन्ता तो,
तेरी काया के भी परे है,
पर भटकता तू,
सदा भौतिक सुख के पीछे है!
यश कीर्ति कहाँ रही तेरी प्राथमिकता?

क्या जीवन तेरा कहीं पर खो चुका है?

नभ पर तू,
ऊँचा उड़ता गिद्ध को देख,
उस ऊचाई पे,
उसे अहम के वहम ने है घेरा,
क्या कर्म उसके दे पाएगी उसे प्रभुसत्ता?

क्या कर्म पथ तेरा कहीं भटक चुका है?