Thursday, 18 November 2021

चलो ना

बड़ी ही धुंधली, ढ़ल रही ये शाम है,
चलो ना,
चमकीली, सुबह की, इक छोर ढ़ूंढ़ लाएं!
वो प्रतीक्षित, भोर ढ़ूंढ़ लाएं!

अंधेरों की, कोई हद तो होगी,
कहर, ढ़ाएगी ये कब तक,
डूबती वो किरण, मन को डराएगी कब तक,
चलो ना,
संग, राहतों की वो सरहद ढ़ूंढ़ लाएं!

कब तक रहा, वक्त इक जैसा,
डरो मत, ये बस सांझ है,
मन में, इक बांझपन ये बढ़ाएगी, कब तक,
चलो ना,
वक्त की, बदलती, करवटें ढ़ूंढ़ लाएं!

उस ओर, वो पल उम्मीदों भरा,
तो हों, यूं नाउम्मीद क्यूँ,
बादल नाउम्मीदियों के, छाएंगे ये कब तक,
चलो ना,
उम्मीद की, वो नई किरण ढ़ूंढ़ लाएं!

बड़ी ही धुंधली, ढ़ल रही ये शाम है,
चलो ना,
चमकीली, सुबह की, इक छोर ढ़ूंढ़ लाएं!
वो प्रतीक्षित, भोर ढ़ूंढ़ लाएं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

6 comments:

  1. बड़ी ही धुंधली, ढ़ल रही ये शाम है,
    चलो ना,
    चमकीली, सुबह की, इक छोर ढ़ूंढ़ लाएं!
    वो प्रतीक्षित, भोर ढ़ूंढ़ लाएं... अतिसुंदर रचना

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ नवंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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