मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!
बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!
शायद, वो इक चीख थी, जो कहीं रही दबी!
सिमट कर, शोर के आवरण में!
अन्तः,गहरी सी टीस थी!
पर ये अन्तः करण, तौलता है कौन?
अन्तर्मन, झांकता है कौन?
चुप-चुप ही रहा, खुद से कर सवाल!
बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!
वो निष्काम सत्य, बेचैन सा, जूझता ही रहा!
समक्ष असत्य के, वो कब झुका!
पर, दुरूह वो काल था!
सत्य पर पड़ा, असत्य का जाल था!
तोड़ता है, वो जाल कौन?
सत्य को रहा, सदा ही इक मलाल!
बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!
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