तब मन को गहरा सा एहसास ये हुआ
बदल सा गया हूँ शायद मैं थोड़ा,
वक्त के थपेड़ों से खुद को मैं बचा न सका,
पर क्या? मेरी पहचान मेरे चेहरों से ही है सिर्फ क्या?
जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?
सहसा महसूस ये हुआ कि अब मैं मैं न रहा,
पर दिल तो मेरा अब भी नहीं बदला,
मन के भीतर तो वही जज्बात उमरते हैं सदा,
तो क्या बदला मेरे अन्दर, जो खुद मैं जान न सका?
जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?
अनुभूति एक दूसरी तब नई हुई इस मन में,
कम से कम पहचाना तो गया ही मैं,
गुजरे वक्त को तो भूल ही जाया करते हैं सब यहाँ,
कम से कम, मैं अभी गुजरा हुआ वक्त तो नहीं हुआ!
जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?