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Tuesday, 25 May 2021

अनुभूत

रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 3 May 2016

ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

तब मन को गहरा सा एहसास ये हुआ
बदल सा गया हूँ शायद मैं थोड़ा,
वक्त के थपेड़ों से खुद को मैं बचा न सका,
पर क्या? मेरी पहचान मेरे चेहरों से ही है सिर्फ क्या?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

सहसा महसूस ये हुआ कि अब मैं मैं न रहा,
पर दिल तो मेरा अब भी नहीं बदला,
मन के भीतर तो वही जज्बात उमरते हैं सदा,
तो क्या बदला मेरे अन्दर, जो खुद मैं जान न सका?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

अनुभूति एक दूसरी तब नई हुई इस मन में,
कम से कम पहचाना तो गया ही मैं,
गुजरे वक्त को तो भूल ही जाया करते हैं सब यहाँ,
कम से कम, मैं अभी गुजरा हुआ वक्त तो नहीं हुआ!

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

Thursday, 31 December 2015

यादों के फूल

फूल यादों के खिलते रहेंगे सदा,
यादों की बन जाएंगी लड़ियाँ,
कुछ सूखे कुछ हरे-भरे पत्तों से,
मानस पटल पर उभर अनमने से,
कुछ सुख-कुछ दुख की अनुभूतियाँ।

बीती-बातों की खुल जाएंगी परतें,
आँखों मे होगा हर गुजरा मंजर,
परत दर परत शायद वो गहराए,
कुछ याद आए, कुछ विसरा जाए,
कुछ आशा-कुछ निराशा के प्रस्तर।

जीवन की राहें गुजरती यादों संग,
कुछ यादें मीठी क्युँ न छोड़ जाए हम़,
जो प्रखेरे आशाओं के रश्मि किरण,
यादें ऐसी जो आँखों मे प्रीत भर दे,
कुछ आस जगाएं नयनों को कर जाए नम।