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Wednesday, 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
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रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)