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Wednesday, 11 March 2020

पुकार लो

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

जीर्ण हो, या नवीन सा श्रृंगार हो,
नैन से नैन का, चल रहा व्योपार हो,
फिर ये शब्द, क्यूँ मौन हों?
ये प्रेम, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, होंठ ये खोल दो,
पुकार लो, फिर उसे!

गर्भ में समुद्र के, दबी कितनी ही लहर,
दर्प के दंभ में, जले भाव के स्वर,
डूब कर, गौण ही रह गए, 
वो लहर, वो भँवर, मौन जो रह गए, 
तैर कर, पार वे कब हुए!
उबार लो, फिर उसे!

अतिवृष्टि हो, अल्प सा तुषार हो,
मेघ से मेह का, बरस रहा फुहार हो,
फिर आकाश, क्यूँ मौन हो?
प्रकाश, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, गांठ ये खोल दो,
निहार लो, फिर उसे!

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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दर्प: - अहंकारघमंडगर्व; मन का एक भावजिसके कारण व्यक्ति दूसरों को कुछ न समझे; अक्खड़पन। 


Sunday, 13 October 2019

आत्मविस्मृति

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

समृद्ध संस्कृति, सुसंस्कृत व्यवहार,
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!

ओ! विस्मृत सी यादें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

भरमाया हूँ, तुझको ही भूला हूँ मैं,
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

उलझाए हैं, दिशाहीन सी ये राहें,
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

संग तुम थे, तो चाहत थी जिन्दा,
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
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आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 8 October 2019

रावण दहन

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

अगणित रावण, दहन किए आजीवन,
मनाई विजयादशमी, जब हुआ लंका दहन,
उल्लास हुआ, हर्षोल्लास हुआ,
मरा नहीं, फिर भी रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

हर वर्ष, नया स्वरूप धर आया रावण,
कर अट्टहास, करता मानवता पर परिहास,
कर नैतिक मूल्यों का, सर्वनाश,
अन्तःमन, ही बैठा रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

बदला चित्र, चरित्र ना बदला रावण,
बना एकानन, खुले आम घूमते हैं दशानन,
घृणित दुष्कर्म, करते ये ही जन,
विभत्स, कर्मों के ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

आज फिर, अट्टहास कर रहा रावण,
मन ही मन, मानवता पर हँस रहा रावण,
गुलाम है सब, मेरे ही आजीवन,
दंभ यही, भर रहा ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

लाख करो इनकी, प्रतीक का शमन,
चाहे अनंत बार करो, इस पुतले का दहन,
शमन न होंगे, ये वैचारिक रावण,
दंभ और दर्प, वाले ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

मन ही जननी, मन दुःख का कारण,
मार सकें गर, तो मारें अपने मन का रावण,
जीत सकें गर, तो जीत ले मन,
शायद, मर जाएंगे ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा