वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!
ठगा सा मैं रहूं, ताकूं, उसे ही निहारूं,
ओढ़ लूं, रुपहली धूप वो ही,
जी भर, देख लूं,
पल-पल, बदलता, इक रूप वो ही,
हो चला, उसी का मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!
वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!
समेट लूं, नैनों में, उसी की इक छटा,
उमर आई, है कैसी ये घटा!
मन में, उतार लूं,
उधार लूं, उस रुप की इक कल्पना,
अद्भुत श्रृंगार का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!
वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!
बांध पाऊं, तो उसे, शब्दों में बांध लूं,
लफ़्ज़ों में, उसको पिरो लूं,
प्रकल्प, साकार लूं,
उस क्षितिज पर बिखरता, रंग वो,
उसी तस्वीर का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!
वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!
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