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Thursday, 2 April 2020

कतरा भर

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!

नजरों से,
अब तलक,
ओझल वो गाँव,
दूर भागते,
कतराते से वो छाँव!
और
न रुकने की,
अनथक,
चलने की,
एक, मेरी भी जिद!

पराए ही रही,
वो धूप,
पराया सा,
फसलों से गुजरता,
वो आसमां,
और
पराए से,
कतराते,
कहीं,
दूर जाते, वो साए!

कतरा-कतरा,
बिखरता,
मैं!
छल,
करती रही थी,
रौशनी ही,
राह भर,
यूँ,
कतरा भर,
पल-पल,
कटता रहा, ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 March 2020

तुम न आए

तुम न आए....
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

इस बार, खिल सका न गुलाब!
न आई, कलियों के चटकने की आवाज,
न बजे, कोपलों के थिरकते साज,
न चली, बसंती सी पवन,
कर गए, जाने पतझड़ कब गमन,
वो काँटे भी मुरझाए!

जो तुम न आए!

रह गई, छुपती-छुपाती चाँदनी!
न आई, शीतल सी, वो दुग्ध मंद रौशनी,
छुप चली, कहीं, तारों की बारात, 
चुप-चुप सी, रही ये रात,
सोने चले, फिर वो, निशाचर सारे, 
खोए रातों के साए!

जो तुम न आए!

चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!

जो तुम न आए!

खुल न सके, मौसम के हिजाब!
न आई, कोयलों के कुहुकने की आवाज,
न बजे, पंछियों के चहकते साज,
न सजे, बागों में वो झूले,
खोए से सावन, वो बरसना ही भूले,
सब मन को तरसाए!

बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)