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Friday, 30 December 2022

रुकना क्या

रुक जाने की जिद ना कर....

इस धार में, बह जाने दे,
अन्त: जो बातें, मझधार में कह जाने दे,
ले हाथों में पतवार,
वक्त का क्या! 
रोक ले, कब, हवाओं का रुख!
छीन ले कब, ये सुख!

रुक जाने की जिद ना कर....

यूं जिरह, फिर कर लेना,
जिद, रुक जाने की, यूं फिर ना करना,
पर, रखना ऐतबार,
धर लेना करार!
भीगे अँसुवन से ये नैन तुम्हारे,
यूं रोके ना, राह हमारे!

रुक जाने की जिद ना कर....

गर इस जिद पर, मैं हारा,
क्या रुक जाएगी ये जीवन की धारा?
बड़ा तीव्र ये बहाव,
बहा लेगी, नाव!
ले जाएगी उस सागर की ओर,
छूट जाएगी, हर डोर!

रुक जाने की जिद ना कर....

जीवन, चलने का नाम,
चलते ही रहते, ये सुबहो और शाम,
नित ही नया सवेरा,
नित नव जीवन!
इक ज़िद रख, बस चलने की,
सूरज सा ढ़लने की!

रुक जाने की जिद ना कर....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 July 2021

अंकित यादें

और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....

पुराने कुछ पल, सिमटे हैं तेरे खत में,
घुंघरुओं सी, बजती लिखावटें,
अब भी, करती हैं बातें,
कभी कोई जिद,
और कभी, कोई जिद न करने की कस्में,
निभ न पाई, जो, वो रस्में,
कुछ भी नहीं, वश में!
बह जाता हूँ, अब भी उसी पल में.....

और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....

इक मेरा वश, खुद ही नहीं, वश में,
एक मेरा मन, है कहाँ संग में,
भटके, कोई बंजारा सा,
जाने कौन दिशा,
ढ़ल चले, जीवन के रंग, ढ़ल चली निशा,
धूमिल हुई, सारी कहकशाँ,
ढ़ूँढ़ता, उनके ही निशां,
बह जाता हूँ, अब भी उसी छल में.....

और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....

धुंधलाने लगे हैं, अब वो सारे मंज़र,
तुम्हारी खत के, वो सारे अक्षर,
पर हुए, मन पे टंकित,
तेरे शब्द-शब्द,
तन्हा पलों को, वो कर जाते हैं निःशब्द,
और गूंजते हैं, वो ही शब्द,
महक उठते हैं, वो पल,
बह जाता हूँ, अब भी उसी कल में.....

और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 February 2021

परिणति

धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!

इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!

भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!

सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!

गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 2 April 2020

कतरा भर

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!

नजरों से,
अब तलक,
ओझल वो गाँव,
दूर भागते,
कतराते से वो छाँव!
और
न रुकने की,
अनथक,
चलने की,
एक, मेरी भी जिद!

पराए ही रही,
वो धूप,
पराया सा,
फसलों से गुजरता,
वो आसमां,
और
पराए से,
कतराते,
कहीं,
दूर जाते, वो साए!

कतरा-कतरा,
बिखरता,
मैं!
छल,
करती रही थी,
रौशनी ही,
राह भर,
यूँ,
कतरा भर,
पल-पल,
कटता रहा, ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 18 June 2019

मन के रार

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

छोड़ न, तू ये जिद!
क्यूँ है तू, अपनी मर्जी पे काबिज?
गर होता वो अपना, वो खुद ही आता, 
तुझको अपनाता,
जिद, वो खुद करता!
यूँ तुझको, ना वो तड़पाता!
इक-तरफा चाहत में,
क्यूँ खुुुद को बेजार करे?
तड़पाएंगे ये तुुुुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

मोड़ ले, अपनी राहें!
भर ना तू, उनकी चाहत में आहें!
क्यूँ उनको ही चाहे, खुद को भटकाए,
अंजान दिशाएं,
क्यूँ खुद को ले जाए?
यूँ दिल को, तू क्यूँ उलझाए!
है ये भूल-भुलैया,
रुख क्यूँ उस ओर करे?
भटकाएंगे ये तुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

तोड़ दे, तू ये भरम!
इक दिन, दे जाएगा बस वो गम!
जिद, बन जाएगा तेरे गम का कारण,
है वो इक वहम,
और अनमोल है जीवन,
भूल न तू, जीवन के ये मरम!
बहती ये पवन,
कोई हाथों में कैैैसे भरे?
परछाईं के पीछे, क्यूँ खुद को शर्मसार करे?

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 9 August 2016

नेह ये कैसा?

नेह ये कैसा?

मासूम सा वो जिद्दी पतंगा,
कोमल पंख लिए लौ पर उड़ता फिरता,
नेह दिल में लिए दिए से कहता,
पनाह मे अपनी ले ले, जीवन के कुछ पल देता जा......

निरंकुश वो दिया है कैसा?
कहता पतंगे से, तू जिद क्युँ करता,
जीवन नहीं, यहाँ मौत है मिलता,
जीवन तू अपना दे दे, जीवन के कुछ पल लेता जा.....

धुन का पक्का पर वो पतंगा,
रंग सुनहरे अपनी निर्दयी दिए को देता,
प्रेम में ही जीता, प्रेम में ही मरता,
आहूति जीवन की देकर, जीवन के कुछ पल जीता....

दिया रोता तब अपने किए पर,
भभककर जल उठता अब रो रोकर,
बुझ जाता पतंगे संग जल जलकर,
कारिख पतंगो को देकर, निशानी नेह की उनको देता...

नेह ये कैसा?

Wednesday, 10 February 2016

बचपन की जिद

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

सोचता हूँ बचपन का नन्हा सा बालक हूँ आज मैं,
जिद करता हूँ अनथक छोटी छोटी बातों को ले मैं,
चाह मेरी छोटी छोटी सी, पर है कितनी जटिल ये,
मम्मी पापा दोनों से बार-बार करता कितना रार मैं,
नन्हा सा हूँ पर मम्मी पापा से करता अपने प्यार मैं।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

यूँ तो पूरी हो जाती हैं सारी दिली फरमाइशें मेरी,
पर मेरे मन की ना हो तो फिर जिद तुम देखो मेरी,
चाकलेट की रंग हो या फिर आइसक्रीम की बारी,
चलती है बस मेरी ही, नही चाहिए किसी की यारी,
नन्हा सा हूँ तो क्या हुआ पसंद होगी तो बस मेरी।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

रातों को सोता हूँ तो बस अपनी मम्मी पापा के बीच,
खबरदार जो कोई और भी आया हम लोगों के बीच,
दस बीस कहानी जब तक न सुन लू सोता ही मैं नहीं,
मम्मी की लोरी तो मुझको सुननी है बस अभी यहीं,
सोता हूँ फिर चाकलेट खाके पापा मम्मी के बीच ही। 

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

उठता हूँ बस चार पाँच बार रातों में माँ-माँ कहता,
पानी लूंगा, बाथरूम जाऊंगा मांग यही बस करता,
स्वप्न कभी आए तो  परियों की जिद भी करता हूँ,
खेल खिलौने मिलने तक मैं खुश कम ही होता हूँ,
मांगे मेरी पूरी ना हो तो घर को सर पर ले लेता हूँ।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

कपड़े की डिजाइन तो होगी, बस पसंद की मेरी ही,
पापा चाहे कुछ भी बोलें, कपड़े लूंगा तो मैं बस वही,
हुड डिजाइन वाले कपड़े, तो बस तीन-चार लूंगा ही,
पापा मम्मी के कपड़े भी, पसंद करूंगा तो बस मैं ही,
कोल्ड ड्रिंक, समोसे, पिज्जा, चिकन तो मैं लूंगा ही।

बचपन की जिद और तकरार आती याद बारबार!

(मेरी बेटी की फरमाईश पे लिखी गई कविता)