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Monday, 10 January 2022

इक जाम

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

छलकने लगी हैं, किरणें सुबह की, नदी पर,
हँसने लगी, कुछ सजने लगी, जिन्दगी,
बादलों की ओट से, कुछ कहने लगी रौशनी,
सो चुका, अब अंधेरा,
छँट चला, निराशाओं का वो पहर,
दोपहर की धूप तक, बातें तमाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुन जरा, कलकल बहती नदी ने क्या कहा,
बहती रही मैं, उन अंधेरों के मध्य भी,
मचलकर, गाती रही, राह के ठोकरों संग भी,
निरन्तर, प्रवाह मेरा,
ले ही आया, आशाओं का शहर,
पहले, उन पर्वतों को इक सलाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुख-दुख तो हैं, दो किनारे इस ज़िन्दगी के,
बेफिकर, बस गीत गा तू बन्दगी के,
दोनों तरफ, छोड़ जाती इक निशानी जिंदगी,
रख कर, इक सवेरा,
देकर, उम्मीदों का ये नव-सफर,
कहती, फिर, सुहानी इक शाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 21 June 2021

चाँदनी कम है जरा

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

कब से हैं बैठे, इन अंधेरों में हम,
छलकने लगे, अब तो गम के ये शबनम,
जला दीजिए ना, दो नैनों के ये दिए,
यहाँ रौशनी, कम है जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

इक भीड़ है, लेकिन तन्हा हैं हम,
बातें तो हैं, पर कहाँ उन बातों में मरहम,
शुरू कीजिए, फिर वो ही सिलसिले,
यहाँ बानगी, कम हैं जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

नजदीकियों में, समाई हैं दूरियाँ,
पास रह कर भी कोई, दूर कितना यहाँ,
दूर कीजिए ना, दो दिलों की दूरियाँ, 
यहाँ बन्दगी, कम हैं जरा!

उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 June 2021

जिक्र आपका

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

झील सी, दो नीली आँखें,
झुकी, पर्वतों पर, अलसाई सी पलकें,
कजराए नैनों में, नींदों के पहरे,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
बादलों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

अधखुली सी, दो पंखुड़ी,
किसी शाख पर, विहँस कर, हों पड़ी,
यूँ भींग कर, हो रही शबनमी,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
गुलाबों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

आभामयी, जैसे चांदनी,
अक्स, ज्यूँ अंधेरों में, प्रदीप्त रौशनी,
जली अनवरत, दीये की नमीं,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
पूजा का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 27 June 2020

उम्मीद

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

डगमगाया सा, समर्पण,
टूटती निष्ठा,
द्वन्द की भँवर में, डूबे क्षण,
निराधार भय,
गहराती आशंकाओं,
के मध्य!
पनपता, एक विश्वास,
कि तुम हो,
और, लौट आओगे,
जैसे कि ये,
सावन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

क्षीण होती, परछाईंयाँ,
डूबते सूरज,
दूर होते, रौशनी के किनारे,
तुम्हारे जाने,
फिर, लौट न आने,
के मध्य!
छूटता हुआ, भरोसा,
बोझिल मन,
और ढ़लती हुई,
उम्मीद की,
किरण!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

गहराते, रातों के साए,
डूबता मन,
सहमा सा, धड़कता हृदय,
अंजाना डर,
बढ़ती, ना-उम्मीदों,
के मध्य!
छूटता हुआ, विश्वास,
टूटता आस,
और मोम सरीखा,
पिघलता सा,
नयन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 2 April 2020

कतरा भर

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!

नजरों से,
अब तलक,
ओझल वो गाँव,
दूर भागते,
कतराते से वो छाँव!
और
न रुकने की,
अनथक,
चलने की,
एक, मेरी भी जिद!

पराए ही रही,
वो धूप,
पराया सा,
फसलों से गुजरता,
वो आसमां,
और
पराए से,
कतराते,
कहीं,
दूर जाते, वो साए!

कतरा-कतरा,
बिखरता,
मैं!
छल,
करती रही थी,
रौशनी ही,
राह भर,
यूँ,
कतरा भर,
पल-पल,
कटता रहा, ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 23 February 2020

मंद मार्तण्ड

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

विवश बड़ा, हुआ दिवस का पहर, 
जागते वो निशाचर, वो काँपते चराचर!
भान, प्रमान का अब कहाँ?
दिवा, खो चली यहाँ,
वो दिनकर, दीन क्यूँ है बना?
निशा, रही रुकी,
उस निशीथिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

खिली हुई धूप में, व्याप्त है अंधेरा,
पूछ लूँ क्षितिज से, कहाँ छुपा है सवेरा!
अब तो, भोर भी हो चला,
चाँद, कहीं खो चला,
तमस, अब तलक ना ढ़ला!
याम, क्यूँ छुपी?
उस यामिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

व्याप्त है, रात का, वो दुरूह पल,
तू ही बता, क्यूँ ये रात, कर रहा है छल!
अब तो, गुम हुई है चाँदनी,
गई, कहाँ वो रौशनी,
मार्तण्ड, मंद क्यूँ हो चला!
विभा, क्यूँ छुपी?
उस विभावरी की गोद में?

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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शब्दार्थ:---------
प्रमान : दिन, विभा, याम
मार्तण्ड: सूर्य
निशीथिनी: रात, निशा, यामिनी

Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 30 September 2018

खुमारियाँ

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

खुश्क सी ये कैसी, चल रही है हवा,
वक्त, जैसे ठहर चुका है यहाँ,
मंद सी हो चली, सूरज की रौशनी,
मंद मंद बह रही, ये बयार भी,
सुस्त से हैं कदम, अधूरी है प्यास भी....

ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....

इस पल ने, यूँ ही बांध रखे है कदम,
आकुल से हैं प्राणों के कण,
इक आहट सी, उठ रही है कहीं,
खोया हूँ मैं, इस पल में यहीं,
है माधुर्य सा, इन खुमारियों में कही....

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

Tuesday, 23 February 2016

शाम कुछ यहाँ कुछ वहाँ

हुई है शाम दोनो तरफ, कुछ यहाँ भी और वहाँ भी,
पल रहे अरमान दोनों तरफ, इक यहाँ और इक वहाँ भी,
सिलसिले तन्हाईयों के अब हैं,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

इक सपना पल रहा यहाँ, एक पल रहाँ वहाँ भी,
नींद आँखों से है गुमशुदा, कुछ यहाँ और कुछ वहाँ भी,
धड़कनें की जुबाँ अब बेजुबाँ हैं,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

ख्वाब आँखों मे पल रहे हैं, कुछ यहाँ और कुछ वहाँ भी।
बजती है मन में शहनाईयाँ, अब यहाँ और वहाँ भी,
गीत साँसों मे अब बज रही है,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

कतारें रौशनी की अब, कुछ यहाँ भी कुछ वहाँ भी।
इंतजार उस पल का, अब यहाँ भी वहाँ भी,
शाम ढल रही अब तुम बिन,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।