सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!
सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)