Wednesday, 29 May 2019

चल रे मन उस गाँव

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

धूप जहाँ, आती थी छन छनकर,
छाँव जहाँ, पीपल की मिल जाती थी अक्सर,
विहग के घर, होते थे पीपल के पेड़ों पर,
जहाँ पगडंडी, बनते थे राहों पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

लोग जहाँ, रहते थे मिल-जुल कर,
इक दूजे से परिहास, सभी करते थे जम कर,
जमघट मेलों के, जहाँ लगते थे अक्सर,
जहाँ प्रतिबंध, नहीं होते थे मन पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

जहाँ क्लेश-रहित, था वातावरण,
स्वच्छ पवन, जहाँ हर सुबह छू जाती थी तन,
तनिक न था, जहाँ हवाओं में प्रदूषण,
जहाँ सुमन, करते थे अभिवादन!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

उदीप्त जहाँ, होते थे मन के दीप,
प्रदीप्त घर को, कर जाते थे कुल के ही प्रदीप,
निष्काम कोई, जहाँ कहलाता था संदीप,
रात जहाँ, चराग रौशन थे घर-घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 26 May 2019

कैसे याद रहे?

जितने पल, व्यतीत हुए इस जीवन के,
उतने ही पल, तुम भी साथ रहे,
शैशव था छाया, जाने कब ये पतझड़ आया,
फिर, कैसे याद रहे?

था श्रृंगार तुम्हारा, या चटकी कलियाँ?
रंग तुम्हारा, या रंग-रंलियाँ?
आँचल ही था तेरा, या थी बादल की गलियाँ,
फिर, कैसे याद रहे?

अस्त हुआ कब दिनकर, कब रात हुई,
तारों को तज, तेरी ही बात हुई,
चाँदनी थी छाई, या थी तेरी ही दुग्ध परछाई,
फिर, कैसे याद रहे?

वृद्ध होंगे कल हम, बृथा था मेरा भ्रम,
यौवन संग, शैशव का संगम,
सप्त-दल से थे तुम,या थे अलि-दल से हम,
फिर, कैसे याद रहे?

कहो ना, तुझको प्रतीत हुआ कैसा?
अंतराल, व्यतीत हुआ कैसा?
अनुपालन, मन के अनुबंधों का था जैसा,
फिर, कैसे याद रहे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 20 May 2019

तलाश

अपना कोई रहगुजर, तलाशती है हर नजर...

वो रंग है, फिर भी वो कितनी उदास है!
उसे भी, किसी की तलाश है...
दिखना है उसे भी, निखर जाना है उसे भी!
बिखर कर, संग ही किसी के....
जीना है उसे भी!

प्रखर है वो, लेकिन कितनी निराश है!
साथी बिना, रंग भी हताश है...
आँचल ही किसी के, विहँसना है उसे भी!
लिपट कर, अंग ही किसी के.....
मिटना है उसे भी!

खुश्बू है वो, उसे साँसों की तलाश है!
तृप्त है, फिर कैसी ये प्यास है?
मन में किसी के, बस उतरना है उसे भी!
सिमट कर, जेहन में किसी के....
रहना है उसे भी!

वो श्रृंगार है, उसे नजर की तलाश है!
सौम्य है, पर चाहत की आस है...
नजर में किसी के, रह जाना है उसे भी!
निखर कर, बदन पे किसी के...
दिखना है उसे भी!

रिक्तता है, जिन्दा सभी में पिपास है!
बाकि, नदियों में भी प्यास है...
इक समुन्दर से, बस मिलना है उसे भी!
उतर कर, दामन में उसी के....
मिटना है उसे भी!

अपना कोई रहगुजर, तलाशती है हर नजर...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 18 May 2019

अवगीत

अवगीत मेरे सुन लेना, लब से दोहराना!
खूबियों से अपनी, अवगत हो जाना,
फिर ख्वाब सुनहरे, आँखों में भर पाओगे!

सुरविहीन श्रृंगारविहीन, शब्द-पुंज मेरे!
राग-विहीन, राग-विलीन हैं गूँज मेरे,
स्वरांजल, सप्तसुरों की तुम ही दे पाओगे!

वो अनुतान कहाँ मुझमें, जो तेरे स्वर में!
वो आरोह कहाँ, जो तेरे आस्वर में!
मुझमें वो लोच कहाँ, जो तुम भर पाओगे!

सुर का ज्ञान नहीं, भावों से अंजान नहीं!
अवगीतों में, भावों को पढ़ पाओगे!
अवगीत मेरे, तब होठों पर रख गाओगे!

मेरे अवगीतों को, जब पिरोओगे सुर में,
खुद को ही पाओगे, तब मेरे सुर में,
अवगत फिर, इस अंजाने से हो जाओगे!

शब्द पिरोता हूँ, समाते हो तुम शब्दों में!
गा लेता हूँ, तुमको ही इन शब्दों में,
अवगीत अधूरे, तुम ही पूरा कर पाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 17 May 2019

निर्मेघ

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

दूर कहीं, घिर आई थी मेघावरि,
उच्छल थे बादल,
इठलाती बूँदें, टिप-टिप कर बरसी,
बना बुत, तकता मैं रहा,
अपने आंगन खड़ा,
सूना पड़ा, मेरे हिस्से का निर्मेघ आसमां!

बह चली, फिर वही बैरन पवन,
ले उड़े वो बादल,
मुझसे परे, दूर कहीं आंगन से मेरे,
खुद के, सवालों से घिरा,
हैरान हठात खड़ा,
मैं अपलक तकता रहा, उच्छल आसमां!

सर्वदा दूर, जाती रही मेघावरि,
छलते रहे बादल,
सूखी रही, मेरे ही आंगन की ज़मीं,
बदलते रहे, परिदृश्य कई,
अधूरे सारे दृश्य,
संग लेकर, नैनों से ओझल हुए आसमां!

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 11 May 2019

मशकूक

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

हम तो बस, मशकूक हैं,
निशाने, उनकी नजर के अचूक हैं,
उनके ही मकरूक हैं,
उनकी ही, ख्वाब में मशरूफ हैं,
महसूस करता हूँ, मैं अपनी धड़कन,
उनके ही कारण....

हर तरफ, हैं उनके नजारे,
बन कर पवन, छू ले, वो ही पुकारे,
वहाँ, जो वो न होते,
न होते, स्पंदन उन वादियों में, 
धड़कती है ये धड़कनें, गूंज बनकर,
उनके ही कारण.....

नेकियां, सब उसने किए,
यहाँ मशकूक तो, बस हम ही हुए,
पहले थे गुमनाम हम,
चर्चे मेरी नाम के, अब आम हैं,
नजर में उनकी भी, हम बदनाम हैं,
उनके ही कारण....

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 9 May 2019

वही पगडंडियाँ

है ये वही पगडंडियाँ ....
चल पड़े थे जहाँ, संग तेरे मेरे कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, टूटे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं, उन ख्वाबों से हम,
उन्ही पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
हवाओं नें बिखराए, तेरे आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं, उनकी तन्हाईयाँ,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
तोड़ डाले जहाँ, मन के सारे भरम,
हुए थे जुदा, तुम और हम,
और दिल ने सहे, वक्त के कितने सितम,
चलो जोड़ आएं, हम वो भरम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद फिर बने, नए भ्रम के समीकरण,
चलो फिर से करें, नए वादे हम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

(Reincarnation of "वादों का नया संस्करण")
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

स्वप्न में मिलें

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

दिन उदास है, अंधेरी सी रात है!
बिन तेरे साथिया, रास आती ना ये रात है!
किससे कहें, कई अनकही सी बात है!
हकीकत से परे, कोई स्वप्न ही बुनें,
अनकही सी वही, बात छेड़ लें....

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

पलकों तले, यूँ जब भी तुम मिले,
दिन हो या रात, गुनगुनाते से वो पल मिले,
शायद, ये महज कल्पना की बात है!
पर हर बार, नव-श्रृंगार में तुम ढ़ले,
कल्पना के उसी, संसार में चलें.....

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

पास होगे तुम, न उदास होंगे हम,
कल्पनाओं में ही सही, मिल तो जाएंगे हम!
तेरे मुक्तपाश में, खिल तो जाएंगे हम!
तम के पाश से, चलो मुक्त हो चलें,
रात ओढ़ लें, उसी राह मे चलें......

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 6 May 2019

अजनबी शहर

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!

तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!

अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!

वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!

छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!

न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा