मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!
मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!
मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)