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Sunday, 23 February 2020

मंद मार्तण्ड

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

विवश बड़ा, हुआ दिवस का पहर, 
जागते वो निशाचर, वो काँपते चराचर!
भान, प्रमान का अब कहाँ?
दिवा, खो चली यहाँ,
वो दिनकर, दीन क्यूँ है बना?
निशा, रही रुकी,
उस निशीथिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

खिली हुई धूप में, व्याप्त है अंधेरा,
पूछ लूँ क्षितिज से, कहाँ छुपा है सवेरा!
अब तो, भोर भी हो चला,
चाँद, कहीं खो चला,
तमस, अब तलक ना ढ़ला!
याम, क्यूँ छुपी?
उस यामिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

व्याप्त है, रात का, वो दुरूह पल,
तू ही बता, क्यूँ ये रात, कर रहा है छल!
अब तो, गुम हुई है चाँदनी,
गई, कहाँ वो रौशनी,
मार्तण्ड, मंद क्यूँ हो चला!
विभा, क्यूँ छुपी?
उस विभावरी की गोद में?

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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शब्दार्थ:---------
प्रमान : दिन, विभा, याम
मार्तण्ड: सूर्य
निशीथिनी: रात, निशा, यामिनी

Sunday, 16 February 2020

रचनाओं की विधा

जीते हैं, शायद वे कुंठाओं में,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
यूँ ही वाणी, अमर्यादित न होती,
यूँ अहम, प्रभावी न होते!

घोल कर, अपनी बातों में अहम,
कहते हैं वो, करते गर्जन, 
गर हो आपकी, कोई विधा-प्रकाशन,
चाहते हैं, पढ़ना हम-
- कुंडलियाँ, दोहा, रोला, सवैया,
- चौपाई, सायली, लावणी, धनाकरी, 
- मत्तगयंद, कवित्त, पंच चामर!

विद्या से परे, ना कोई विधा,
सुंदर से सुंदरतम, होती हर इक विधा,
यूँ ही ये विधाएं, प्लावित न होती,
यूँ कवि, चारण न बनते!

हर रचना, बुनती इक भाव,
तुलसी ने, कब लिखी गजल, लावणी,
दिनकर ने, कब लिखी कव्वाली,
यूँ रचना, प्रखर ना होते!

मेरी साधारण सी, रचनाएँ,
मन की यमुना है, बस बहती ही जाए,
गंगा है, कल-कल करती जाए,
यूँ धारा बन, ना बहते!

मन भर जाए, लिखता हूँ, 
विधा जो कहलाए, भाव बुन लेता हूँ,
जिनको पढ़ना हो, वे पढते हैं,
यूँ ही,भावों में बहते हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 May 2019

चल रे मन उस गाँव

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

धूप जहाँ, आती थी छन छनकर,
छाँव जहाँ, पीपल की मिल जाती थी अक्सर,
विहग के घर, होते थे पीपल के पेड़ों पर,
जहाँ पगडंडी, बनते थे राहों पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

लोग जहाँ, रहते थे मिल-जुल कर,
इक दूजे से परिहास, सभी करते थे जम कर,
जमघट मेलों के, जहाँ लगते थे अक्सर,
जहाँ प्रतिबंध, नहीं होते थे मन पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

जहाँ क्लेश-रहित, था वातावरण,
स्वच्छ पवन, जहाँ हर सुबह छू जाती थी तन,
तनिक न था, जहाँ हवाओं में प्रदूषण,
जहाँ सुमन, करते थे अभिवादन!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

उदीप्त जहाँ, होते थे मन के दीप,
प्रदीप्त घर को, कर जाते थे कुल के ही प्रदीप,
निष्काम कोई, जहाँ कहलाता था संदीप,
रात जहाँ, चराग रौशन थे घर-घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 26 May 2019

कैसे याद रहे?

जितने पल, व्यतीत हुए इस जीवन के,
उतने ही पल, तुम भी साथ रहे,
शैशव था छाया, जाने कब ये पतझड़ आया,
फिर, कैसे याद रहे?

था श्रृंगार तुम्हारा, या चटकी कलियाँ?
रंग तुम्हारा, या रंग-रंलियाँ?
आँचल ही था तेरा, या थी बादल की गलियाँ,
फिर, कैसे याद रहे?

अस्त हुआ कब दिनकर, कब रात हुई,
तारों को तज, तेरी ही बात हुई,
चाँदनी थी छाई, या थी तेरी ही दुग्ध परछाई,
फिर, कैसे याद रहे?

वृद्ध होंगे कल हम, बृथा था मेरा भ्रम,
यौवन संग, शैशव का संगम,
सप्त-दल से थे तुम,या थे अलि-दल से हम,
फिर, कैसे याद रहे?

कहो ना, तुझको प्रतीत हुआ कैसा?
अंतराल, व्यतीत हुआ कैसा?
अनुपालन, मन के अनुबंधों का था जैसा,
फिर, कैसे याद रहे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा