Friday, 17 May 2019

निर्मेघ

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

दूर कहीं, घिर आई थी मेघावरि,
उच्छल थे बादल,
इठलाती बूँदें, टिप-टिप कर बरसी,
बना बुत, तकता मैं रहा,
अपने आंगन खड़ा,
सूना पड़ा, मेरे हिस्से का निर्मेघ आसमां!

बह चली, फिर वही बैरन पवन,
ले उड़े वो बादल,
मुझसे परे, दूर कहीं आंगन से मेरे,
खुद के, सवालों से घिरा,
हैरान हठात खड़ा,
मैं अपलक तकता रहा, उच्छल आसमां!

सर्वदा दूर, जाती रही मेघावरि,
छलते रहे बादल,
सूखी रही, मेरे ही आंगन की ज़मीं,
बदलते रहे, परिदृश्य कई,
अधूरे सारे दृश्य,
संग लेकर, नैनों से ओझल हुए आसमां!

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

16 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना

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    1. सदैव आभारी हूँ आदरणीया अनुराधा जी।

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  2. हमेशा की तरह लाज़बाब ,सादर नमस्कार

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया कामिनी जी।

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  3. बहुत सुन्दर !
    नीरज की पंक्तियाँ याद आ गईं -
    अब के सावन में, शरत ये मेरे साथ हुई,
    मेरा घर छोड़ के, कुल शहर में बरसात हुई.

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    1. आदरणीय गोपेश सर, "नीरज" जी की रचना से इसकी तुलना बड़े ही सम्मान की बात है।
      हालांकि, हम तो उनकी धूल भी नहीं है।
      बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18 -05-2019) को "पिता की छाया" (चर्चा अंक- 3339) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    ....
    अनीता सैनी

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  5. भावपूर्ण .. लाजवाब सृजन ।

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  6. लाजवाब 👌 👌 बहुत खूबसूरत

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    1. आपकी प्रशंसा ही मेरे लिए मार्गदर्शन हैं । आभार अभिवादन आदरणीय जोशी जी।

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  8. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ।

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