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Saturday, 19 March 2022

दीर्घ श्वांस

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

यूँ तो, आपा-धापी में, भूल बैठा खुद ही को,
रहा निरंतर, खुद से ही निरुत्तर,
कहता, क्या किसी को!
शिकायत तुम जो करते, मैं जाग जाता,
सोए एहसासों को जगाता,
रहे तुम साथ ही, पर मैं!
साथ था कब?

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

खिली इस बागवां में, अधखिली ही ये कली,
मुरझा चुके, मन के फूल कितने,
आ चुभे, यूँ शूल कितने,
इस राह पर, तुम, जताते अधिकार गर,
रुक ही जाता, मैं रास्तों पर,
सहते गए, तुम धूप सारे, 
गुम रहा मैं!

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 February 2022

निरुत्तर

किसी ने, उकसाया था, शायद!
यूं ही, पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

क्यूं रहती हूं, मैं बिल्कुल पास, तुम्हारे ही,
जबकि, कभी, चुभ जाती हैं, 
तुम्हारी, कुछ बातें, आकर यूं ही,
अक्सर, होते हो रूखे,
कर जाते हो, अनसुना, एहसासों को मेरे,
दो पल को, होती हूं, भावुक,
फिर, दूजे ही पल, 
हो उठती हूं, भाव-विभोर,
खो जाती हूं, बस तुझमें ही,
सुना है, टूटकर भी, सूखते नहीं, नागफनी!
जबकि, पल में, सूख जाते हैं फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

निरंतर, उनसे, ये बातें सुन कर,
निरुत्तर सा था मैं!
विषयवस्तु ही थे कठिन,
निरंतर कुछ प्रश्न, थे और जटिल! 

क्यूं, घबराता है मन, तुम्हारे न आने से,
एहसास, क्यूं हो उठते सूने!
घेरे होते हैं, तेरी बातों के, वलय,
व्यस्तता भी नहीं, कोई,
फिर भी, ख्यालों में व्यस्त सी दिन भर,
डंसते हुए,  सांझ के वो पल,
चुभता सा इंतजार,
खिंची सी होती, उस ओर,
ज्यूं पतंग संग, बंधी कोई डोर,
सुना है, उम्र भर कुम्हलाते नहीं नागफनी!
लेकिन, क्षण भर में मुर्झाते ये फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

डूब चुका था, गहरी सोंच में मैं,
प्रश्न ही था ऐसा,
भिन्न कर पाता मैं कैसे,
यह, प्रेम हमारा, कांटा है या फूल?

हां, एक दिलासा भर, मैं दे सकता था,
सपने, संग बुन सकता था,
संग, दूर तलक चल सकता था,
मैं, बो देता कांटे कैसे!
हाँ, बिछ जाता, उनकी प्रगति पथ पर,
लेकिन, कैसी थी यह शंका!
क्या, कारण था?
शायद, मेरी ही अनदेखी!
मैंने ही, कब उनका प्रेम जाना!
अधिकारवश, कुछ भी मेरा कह जाना,
अकारण से ही, कोई दोषारोपण,
या मैंने,
नादानी में ही, की थी कुछ भूल?

मैंने ही, उकसाया था, शायद!
या, यूंही पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 December 2021

निरंतर, एक वर्ष और

निरुत्तर करती रही, उसकी निरंतरता!
यूं वर्ष, एक और बीता,
बिन थके, परस्पर बढ़ चले कदम,
शून्य में, किसी गंतव्य की ओर,
बिना, कोई ठौर!
निरंतर, एक वर्ष और!

प्रारम्भ कहां, अन्त कहां, किसे पता?
यह युग, कितना बीता,
रख कर, कितने जख्मों पे मरहम,
गहन निराशा के, कितने मोड़,
सारे, पीछे छोड़!
निरंतर, एक वर्ष और!

ढ़ूंढ़े सब, पंछी की, कलरव का पता?
पानी का, बहता सोता,
जागे से, बहती नदियों का संगम,
सागर के तट, लहरों का शोर,
गुंजित, इक मोड़!
निरंतर, एक वर्ष और!

निरुत्तर मैं खड़ा, यूं बस रहा देखता!
ज्यूं, भ्रमित कोई श्रोता,
सुनता हो, उन झरनों की सरगम,
तकता हो इक टक उस ओर,
अति-रंजित, छोर!
निरंतर, एक वर्ष और!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 2 August 2019

निःस्तब्ध रात

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

निरुत्तर था, उसके हर सवाल पर मैं,
कह भी, कुछ न सका, उसके हाल पर मैं!
निःस्तब्ध, कर गई थी वो रात!

डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर,
तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर!
रात को, भुला दी थी किसी ने!

वो ही जख्म अब, नासूर सा था बना,
दिन के उजाले से ही, मिले थे जख्म काले!
निरंतर, सिसकती रही थी रात!

दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,
निर्जन तिमिर उस राह में, ना  कोई रहवर!
पीड़ में ही, घुटती रही थी रात!

उफक पर, चाँद आया था उतर कर,
बस कुछ पल, वो तारे भी बने थे सहचर!
लेकिन, अधूरी सी थी वो साथ!

गुम हुए थे तारे, रात के सारे सहारे,
निशाचर सोने चले थे, कुछ पल शोर कर!
अकेली ही, जगती रही वो रात!

क्षितिज पर, भोर ने दी थी दस्तक,
उठकर नींद से, मै भी जागा था तब तक!
आप बीती, सुना गई थी रात!

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा