Saturday, 27 November 2021

अक्सर

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

यूँ, रुक भी ना सकूं, इस मोड़ पर,
सफर के, इक लक्ष्य-विहीन, छोर पर,
अक्सर, खुद को, रोकता हूँ,
अन्तहीन पथ पर, ठांव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

अपनत्व, ज्यूं हो महज शब्द भर,
बेगानों में, लगे सहज कैसे, ये सफर,
अक्सर, प्रश्नों में, डूबता हूँ,
ममत्व भरा, वही गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

30 comments:

  1. कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
    जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
    अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
    इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!
    वाह

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  2. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 28 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
    (28-11-21) को वृद्धावस्था" ( चर्चा अंक 4262) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  4. कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
    जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
    अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
    इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!.. अपने को ढूंढती सुंदर सार्थक रचना ।

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  5. अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
    ज्यूं,चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ
    सच कहा आपने! बहुत ही बेहतरीन सृजन
    गाँव में होकर भी बचपन वाला गाँव ढूढ़ते है
    वो पगडण्डी,वो खेत खलिहान ढूढ़ते है
    गाँव में होकर भी गाँव ढूढ़ते है!
    वह पीपल के पेड़ की ठंडी छांव
    और तालाब का किनारा ढूढ़ते है!
    गाँव में होकर भी हम गाँव ढूढ़ते है

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  6. कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
    जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
    अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
    इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!

    अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
    ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ
    अब शहरी कोलाहल से थका मन सचमुच वहीं पुराना गाँव ढ़ूँढ़ने लगा है।
    बहुत ही सुन्दर ...बेहतरीन सृजन
    वाह!!!

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  7. कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
    जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
    अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
    इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!... बहुत सुंदर सर।

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  8. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 13 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  9. बहुत ही सुन्दर रचना

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  10. प्यारी सी कविता । छोर की वर्तनी छोङ हो गई है ।

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