Monday, 6 December 2021

लगाव

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

खोल दो, कल की सारी खिड़कियां,
झांक तो लूं, मैं जरा,
क्या धरे भेष वो, कौन सा परिवेश वो,
है किधर, जाने परदेश वो,
लिखे, क्या कहानी, 
बेजुबानी,
दे न जाए, कोई अनचाही निशानी,
परिवेश मेरा!

अनायास, मिल न जाए, मोड़ कोई,
संभल जाऊं, मैं जरा,
ये अन्तहीन, सर्प सरीखी, राहों के घेरे,
विस्तृत, गुमसुम से ये फेरे,
कल, छीन ले सगा,
रहूं, मैं ठगा,
हठात्, दे न जाए, कल इक दगा,
ये वक्त मेरा!

मुझे लगाव, हर एक पल से आज,
जी लूं आज, मैं जरा,
नींव, कल की, आज ही एक डाल दूं,
मन के, भरास निकाल लूं,
क्यूं रहे, ये मन डरा,
यूं भरा-भरा,
हर वक्त ये पल, ये क्षिण, ये धरा,
बस रहे मेरा!

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

2 comments: